Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सत्तरहवाँ लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक
[३३९ गोयमा ! अणंताओ वग्गणाओ पण्णत्ताओ। एवं जाव सुक्कलेस्साए। [१२४५ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या की कितनी वर्गणाएँ कही गई हैं ?
[१२४५ उ.] गौतम ! (उनकी) अनन्त वर्गणाएँ कही गई हैं। इसी प्रकार यावत् शुक्ललेश्या तक की (वर्गणाओं का कथन करना चाहिए।)
१२४६. केवतिया णं भंते ! कण्हलेस्साठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा कण्हलेस्साठाणा पण्णत्ता। एवं जाव सुक्कलेस्साए ।
[१२४६ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या के स्थान (तर-तमरूप भेद) कितने कहे गये हैं? .. [१२४६ उ.] गौतम ! कृष्णलेश्या के असंख्यात स्थान कहे गए हैं। इसी प्रकार शुक्ललेश्या तक (के स्थानों की प्ररूपणा करनी चाहिए।)
विवेचन - ग्यारहवें प्रदेशाधिकार से चौदहवें स्थानाधिकार तक की प्ररूपणा - प्रस्तुत चार सूत्रों में प्रदेश, प्रदेशावगाढ़, वर्गणा और स्थान की प्ररूपणा की गई है।
'कृष्णादि लेश्याएँ अनन्तप्रादेशिकी - कृष्णादि छहों लेश्याओं में से प्रत्येक के योग्य परमाणु अनन्त-अनन्त होने से उन्हें अनन्तप्रादेशिकी कहा है।
कृष्णादि लेश्याएँ असंख्यात प्रदेशावगाढ़ - यहाँ प्रदेश का अर्थ आकाश प्रदेश है, क्योंकि अवगाहन आकाश के प्रदेशों में ही होता है। यद्यपि एक-एक लेश्या की वर्गणाएँ अनन्त-अनन्त है, तथापि उन सबका अवगाहन असंख्यात आकाश प्रदेशों में ही हो जाता है, क्योंकि सम्पूर्ण लोकाकाश के असंख्यात ही प्रदेश हैं।
कृष्णादिलेश्याएँ अनन्त वर्गणायुक्त - औदारिक शरीर आदि के योग्य परमाणुओं के समूह के समान कृष्णलेश्या के योग्य परमाणुओं के समूह को कृष्णलेश्या की वर्गणा कहा गया है। ये वर्गणाएँ वर्णादि के भेद से अनन्त होती हैं।
कृष्णादिलेश्याओं के असंख्यात स्थान - लेश्यास्थान कहते हैं- प्रकर्ष-अपकर्षकृत अर्थात् अविशुद्धि और विशुद्धि की तरतमता से होने वाले भेदों को। जब भावरूप कृष्णादि लेश्याओं का चिन्तन किया जाता है, तब एक-एक लेश्या के प्रकर्ष-अपकर्ष कृत स्वरूपभेदरूप स्थान, काल की अपेक्षा से असंख्यात उत्सर्पिणीअवसर्पिणी कालों के समयों के बराबर हैं । क्षेत्र की अपेक्षा से- असंख्यात लोकाकाश प्रदेशों के बराबर स्थान अर्थात्- विकल्प हैं। कहा भी हैं- असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों के जितने समय होते हैं, अथवा असंख्यात लोकों के जितने प्रदेश हों, उतने ही लेश्याओं के स्थान (विकल्प) हैं। किन्तु विशेषता यह है कि कृष्णादि तीन अशुभ भावलेश्याओं के स्थान संक्लेशरुप होते हैं और तेजोलेश्यादि तीन शुभ भावलेश्याओं के स्थान विशुद्ध होते हैं।
१. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३६८