Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 505
________________ ४८४ ] [प्रज्ञापनासूत्र [५] वेमाणिया दुविहा-कप्पोवगा कप्पातीता य । कप्पोवगा बारसविहा, तेसिं एि एवं चेव दुगतो भेदो । कप्पातीता दुविहा-गेवेजगा य अणुत्तरा य । गेवेजगा णवविहा, अणुत्तरोववाइया पंचविहा, एतेसिं पजत्तापजत्ताभिलावेणं दुगतो भेदो । _[१५२०-५] वैमानिक-देव दो प्रकार के होते हैं-कल्पोपपन्न और कल्पातीत । कल्पोपपन्न बारह प्रकार के हैं । उनके भी (पर्याप्तक और अपर्याप्तक, यों) दो-दो भेद होते हैं । उन सभी के वैक्रियशरीर होता है ।) कल्पातीत वैमानिक देव दो प्रकार के होते हैं-ग्रैवेयकवासी और अनुत्तरोपपातिक । ग्रैवेयक देव नौ प्रकार के होते हैं, और अनुत्तरौपपातिक पांच प्रकार के । इन सबके पर्याप्तक और अपर्याप्तक से दो-दो भेद (कहने चाहिए) । इन सबके वैक्रियशरीर होता है ।) विवेचन - वैक्रियशरीर के भेद-प्रभेद - प्रस्तुत सात सूत्रों (१५१४ से १५२० तक) में वैक्रियशरीर के विधिद्वार के सन्दर्भ में उसके एकेन्द्रियगत और पंचेन्द्रियगत भेद-प्रभेदों का निरूपण किया गया है। फलितार्थ - वैक्रियशरीर के सभी भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा का फलितार्थ यह कि एकेन्द्रियों में केवल पर्याप्तक-बादर-वायुकायिक जीवों के वैक्रियशरीर होता है । पंचेन्द्रियों में - पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में - संख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-पर्याप्तकों के वैक्रियशरीर होता है ; जबकि मनुष्यों में-पंचेन्द्रिय-गर्भज-कर्मभूमिक-संख्यातवर्षायुष्क-पर्याप्तक-मनुष्यों के वैक्रियशरीर होता है । देवों में सभी प्रकार के पर्याप्तक-अपर्याप्तक-भवनपतियों, वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों के वैक्रियशरीर होता है । नारकों में-सातों ही नरकपृथ्वियों के पर्याप्तक-अपर्याप्तक नारकों के वैक्रियशरीर होता __ निष्कर्ष यह है, वायुकायिकों में, पर्याप्तक-अपर्याप्तक-सूक्ष्म और अपर्याप्तक-बादर-वायुकायिकों में वैक्रियलब्धि नहीं होती । पंचेन्द्रियों में जलचर-स्थलचर-चतुष्पद, उर:परिसर्प, भुजपरिसर्प और खेचर तिर्यञ्च-पंचेन्द्रियों को तथा मनुष्यों में गर्भज, पर्याप्तक, संख्येयवर्षायुष्क-मनुष्यों को छोड़ कर शेष मनुष्यों में वैक्रियलब्धि सम्भव नहीं हैं । वाणमंतराणं अट्ठविहाणं-वाणव्यन्तरदेव ८ प्रकार के हैं-(१)यक्ष, (२)राक्षस, (३)किन्नर, (४) किम्पुरुष, (५) भूत, (६)पिशाच, (७)गन्धर्व और (८)महारोग । जोइसियाणं पंचविहाणं-ज्योतिष्कदेरव ५ प्रकार के हैं- (१)चन्द्र, (२)सूर्य, (३)ग्रह, (४)नक्षत्र और (५)तारा । १.. पण्णवणासुत्तं (प्रस्तावनादि) भाग-२, पृ. ११८ २. प्रज्ञापना., मलयवृत्ति, पत्र ४१६

Loading...

Page Navigation
1 ... 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545