Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 539
________________ ५१८ ] [प्रज्ञापनासूत्र उपचय होता है । तात्पर्य यह है कि यदि एक दिशा में अलोक आ जाए तो पांच दिशाओं से, दो दिशाओं में अलोक आ जाए तो चार दिशाओं से और यदि तीन दिशाओं में अलोक आ जाए तो तीन दिशाओं से पुद्गलों का चय-उपचय होता है । उदाहरणार्थ-कोई औदारिकशरीरधारी सूक्ष्मजीव हो और वह लोक के सर्वोच्च (सर्वोर्ध्व) प्रतर में आग्नेयकोणरूप लोकान्त में स्थित हो, जिसके ऊपर (लोकाकाश न हो, पूर्व तथा दक्षिण दिशा में भी लोक न हो, वह जीव अधोदिशा, पश्चिम और उत्तर दिशा, इन तीन दिशाओं से ही पुद्गलों का चय, उपचय करेगा क्योंकि शेष तीन दिशाएं अलोक से व्याप्त होती हैं । जब वही औदारिकशरीरी सूक्ष्म जीव पश्चिमदिशा में रहा हुआ हो, तब उसके लिए पूर्वदिशा अधिक हो जाती है, इस कारण चार दिशाओं से पुद्गलों का आगमन होगा । जब वह जीव अधोदिशा में द्वितीय आदि किसी प्रतर में रहा हुआ हो और पश्चिमदिशा का अवलम्बन लेकर स्थित हो, तब वहाँ ऊर्ध्वदिशा भी अधिक लब्ध हो तो केवल दक्षिणदिशा ही अलोक से व्याहत (रुकी हुई) होती है, इस कारण पांचों दिशाओं से वहां पुद्गलों का आगमन (चय) होता है। तैजस-कार्मणशरीर तो समस्त संसारी जीवों के होते हैं, इसलिए औदारिकशरीर की तरह उनका भी चय-उपचय समझना चाहिए । जिस प्रकार चय का कथन किया है, उसी प्रकार उपचय और अपचय का कथन करना चाहिए। शरीरसंयोगद्वार १५५९. जस्स णं भंते ! ओरालियसरीरं तस्स णं वेउव्वियसरीरं ? जस्स वेउव्वियसरीरं तस्स ओरालियसरीरं? गोयमा ! जस्स ओरालियसरीरं तस्स वेउब्वियसरीरं सिय अस्थि सिय णत्थि, जस्स वेउब्वियसरीरं तस्स ओरालियसरीरं सिय अस्थि सिय णत्थि । [१५५९. प्र.] भगवन् ! जिस जीव के औदारिकशरीर होता है, क्या उसके वैक्रियशरीर (भी) होता है ? (और) जिसके वैक्रियशरीर होता है, क्या उसके औदारिकशरीर (भी) होता है ? [उ.] गौतम ! जिसके औदारिकशरीर होता है, उसके वैक्रियशरीर कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं होता है (और) जिसके वैक्रियशरीर होता है, उसके औदारिकशरीर कदाचित् होता है, (तथा) कदाचित् नहीं होता है। १५६०. जस्स णं भंते ! ओरालियसरीरं तस्स आहारगसरीरं ? जस्स आहारगसरीरं तस्स १. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४३२ (ख) पण्णवणासुत्तं (प्रस्तावनादि) भा. २, पृ. ११८ (ग) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा.४, पृ.८०५-८०६

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