Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 536
________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] [ ५१५ जब कोई भवनपति आदि देव प्रयोजनावश तृतीय नरकपृथ्वी के अधस्तन (नीचले) चरमान्त (अन्तिम छोर) प्रदेश में जाता है और आयु का क्षय होने से वहीं मर जाता है, तब तिरछे स्वयम्भूरमणसमुद्र के बाह्य वेदिकान्त में अथवा ईषत्प्राग्भारापृथ्वी के पर्यन्तभाग में पृथ्वीकायिक रूप में उत्पन्न होता है । उस समय उसकी तैजसशरीरावगाहना नीचे-तृतीय नरकपृथ्वी के चरमान्त तक, मध्य में स्वयम्भूरमण के बाह्य वेदिकान्त तक और ऊपर ईषत्प्रारभारापृथ्वी के पर्यन्त भाग तक की होती है। सनत्कुमारादि देवों की तैजसशरीरावगाहना - सनत्कुमार आदि देव अपने भवस्वभाववश एकेन्द्रियों में या विकलेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होते । वे पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों अथवा मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं । अतएव मन्दरपर्वत की पुष्करिणी आदि में जलावगाहन करते समय आयु का क्षय होने पर उसी स्थान में निकटवर्ती प्रदेश में मत्स्यरूप में उत्पन्न हो जाते हैं, तब उनके तैजसशरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की होती है । यदि कोई सनत्कुमारादि देव दूसरे देव के निश्राय से अच्युतकल्प में चला जाए और वहीं उसकी आयु का क्षय हो जाए तो वह काल करके तिरछे-स्वयम्भूरमणसमुद्र के पर्यन्तभाग में अथवा नीचे पातालकलश के दूसरे त्रिभाग में, मत्स्य आदि के रूप में जन्म ले लेता है, तब उसकी ऊपर, नीचे, और तिरछे. पर्वोक्त.तैजसशरीरावगाहना होती है. ऐसा समझना चाहिए । अच्युतदेवों की ऊर्ध्व तैजसशरीरावगाहना - अच्युतदेव ऊपर में अच्युतविमान तक ही रहता है। इसलिए उसकी तैजसशरीरावगाहना की प्ररूपणा करते समय ऊपर में अच्युतकल्प तक नहीं कहना चाहिए। यह देव अच्युतकल्प में रहता अवश्य है, किन्तु कदाचित् अपने विमान की ऊँचाई तक जाता है और वहीं आयुष्यक्षय हो जाता है तो च्यव कर अच्युतविमान के पर्यन्त में उत्पन्न होता है । तब उसकी इतनी तैजसशरीरावगाहना होती है । कार्मणशरीर में विधि-संस्थान-प्रमाणद्वार १५५२. कम्मगसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते । तं जहा - एगिदियकम्मगसरीरे जाव पंचेन्दिय ० । एवं जहेव तेयगसरीरस्स भेदो संठाणं ओगाहणा य भणिया (सु. १५३६-५१) तहेव णिरवसेसं भाणियव्वं जाव अणुत्तरोववाइय त्ति । [१५५२-प्र.] भगवन् ! कार्मणशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) पांच प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार - एकेन्द्रियकार्मणशरीर यावत् १. वही, पत्र ४२९ प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्राांक ४३० वही, पत्र ४३० ३.

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