Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रज्ञापनासूत्र
[उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, (किन्तु वह) केवलिप्ररूपित धर्म का श्रवण प्राप्त कर सकता
है
१४५३. एवं वाउक्काइए वि। [१४५३] इसी प्रकार वायुकायिक के विषय में भी समझ लेनी चाहिए। १४५४. वणस्सइकाइए णं ० पुच्छा ।
गोयमा ! णो इणढे समठे, अंतकिरियं पुण करेजा । । [१४५४ प्र.] वनस्पतिकायिक जीव के विषय में पृच्छा है (कि क्या वह वनस्पतिकायिकों में से निकल कर तीर्थकरत्व प्राप्त कर सकता है ?)
[उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह अन्तक्रिया कर सकता है। १४५५. वेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदिए णं ० पुच्छा । गोयमा ! णो इणढे समठे, मणपजवणाणं पुण उप्पाडेजा।
[१४५५ प्र.] द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय के विषय में भी यही प्रश्न है (कि क्या ये अपने-अपने भवों में से उवृत्त हो कर सीधे तीर्थकरत्व प्राप्त कर सकते हैं ?)
[उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, (किन्तु ये) मनःपर्यवज्ञान का उपार्जन कर सकते हैं। १४५६. पंचेंदियतिरिक्खजोणिय-मणूस-वाणमंतर-जोइसिए णं ० पुच्छा । गोयमा ! णो इणढे समढे, अंतकिरियं पुण करेजा।
[१४५६ प्र.] अब पृच्छा है (कि क्या) पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य, वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्कदेव अपने-अपने भवों में उद्तर्तन करके सीधे तीर्थकरत्व प्राप्त कर सकते हैं ?
[उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह अन्तक्रिया (मोक्ष प्राप्त) कर सकता है । १४५७. सोहम्मगदेवे णं भंते ! अणंतरं चयं चइत्ता तित्थगरत्तं लभेज्जा?
गोयमा ! अत्थेगइए लभेजा, अत्थेगइए णो लभेजा, एवं जहा रयणप्पभापुढविणेरइए (सु. १४४४)।
[१४५७ प्र.] भगवन् ! सौधर्मकल्प का देव, अपने भव से च्यवन करके सीधा तीर्थकरत्व प्राप्त कर सकता है ?
[उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई (सौधर्मकल्प का देव तीर्थकरत्व) प्राप्त करता है और कोई प्राप्त नहीं