Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 481
________________ ४६० ] भेद से दो प्रकार का कहा गया है) । १४८७. [ १ ] मणूसपंचेंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते । तं जहा सम्मुच्छिममणूसपंचेंदियओरालियसरीरे य गब्भवक्कंतियमणूसपंचेंदियओरालियसरीरे य । [१४८७-१ प्र.] भगवन् ! मनुष्य-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार - सम्मूच्छिम मनुष्य-पंचेन्द्रियऔदारिकशरीर और गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रिय-औदारिक प्रज्ञापनासूत्र [ २ ] गब्भवक्कंतियमणूसपंचेंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - पज्जत्तगगब्भवक्कंतियमणूसपंचेंदियओरालियरीरे अपज्जत्तगगब्भवक्कंतियमणूसपंचेंदियओरालियसरीरे य । [१४८७-२ प्र.] भगवन् ! गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार का कहा गया है, यथा- पर्याप्तक - गर्भज- मनुष्य-पंचेन्द्रियऔदारिकशरीर और अपर्याप्तक- गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर । विवेचन - औदारिकशरीर के भेद-प्रभेद - प्रस्तुत १२ सूत्रों ( १४७६ से १४८७ तक) में विधिद्वार. के सन्दर्भ में औदारिकशरीर के भेद-प्रभेदों का निरूपण किया गया है । औदारिकशरीरधारी जीव नारकों और देवों को छोड़ कर एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तिर्यचों और मनुष्यों के जितने भी जीव हैं और उन जीवों के जितने भी भेद-प्रभेद हैं, उतनी ही औदारिकशरीर के भेदप्रभेदों की संख्या है ।' T औदारिकशरीर के भेदों की गणना - पांच प्रकार के एकेन्दियों के औदारिक शरीरों के प्रत्येक के सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त, ये चार-चार भेद होने से कुल २० भेद हुए । तीन विकलेन्द्रियों के पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से ६ भेद हुए । तत्पश्चात् औदारिकशरीर पंचेन्द्रिय के मुख्य दो भेद - तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय और मनुष्यपंचेन्द्रिय । तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय - औदारिकशरीर के मुख्य तीन भेद - जलचर, स्थलचर और खेचर सम्बन्धी । फिर जलचर शरीर के दो भेद - सम्मूच्छिम एवं गर्भज । सम्मूच्छिम और गर्भज दोनों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक, ये दो-दो भेद । स्थलचर शरीर के मुख्य दो भेद - चतुष्पद और परिसर्प । चतुष्पद स्थलचर शरीर के दो भेद - सम्मूच्छिम और गभर्ज, फिर इन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त, ये दो-दो प्रकार । परिसर्प पण्णवण्णासुत्तं (प्रस्तावनादि) भा. २, पृ. ११७ १.

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