Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रज्ञापनासूत्र
दशम : रत्नद्वार
१४६७. सेणावइरयणत्तं गाहावइरयणत्तं वड्डइरयणत्तं पुरोहियरयणत्तं इत्थिरयणत्तं च एवं चेव, णवरं अणुत्तरोववाइयवजेहिंतो ।
- [१४६७] सेनापतिरत्नपद, गाथापतिरत्नपद, वर्धकीरत्नपद, पुरोहितरत्नपद और स्त्रीरत्नपद की प्राप्ति के सम्बन्ध में इसी प्रकार (अर्थात्-माण्डलिकत्वप्राप्ति के कथन के समान समझना चाहिए ।) विशेषता यह है कि अनुत्तरौपपातिक देवों को छोड़ कर (सेनापतिरत्न आदि हो सकते है ।)
१४६८.आसरयणत्तं हत्थिरयणत्तं च रयणप्पभाओ णिरंतरं जाव सहस्सारो अत्थेगइए लभेजा, अत्थेगइए णो लभेजा।
[१४६८] अश्वरत्न एवं हस्तिरत्नपद रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर निरन्तर (लगातार) सहस्रार देवलोक के देव तक का कोई (जीव) प्राप्त कर सकता है, कोई प्राप्त नहीं कर सकता है ।
१४६९. चक्करयणत्तं छत्तरयणत्तं चम्मरयणत्तं दंडरयणत्तं असिरयणत्तं मणिरयणत्तं कगिणिरयणत्तं एतेसि णं असुरकुमारेहिंतो आरद्धं निरंतरं जाव ईसाणेहिंतो उववाओ, सेसेहिंतो णो इणढे समढे । दारं १० ॥ _ [१४६९] चक्ररत्न, छत्ररत्न, चर्मरत्न, दण्डरत्न, असिरत्न, मणिरत्न, एवं काकिणीरत्न पर्याय में उत्पत्ति, असुरकुमारों से लेकर निरन्तर (लगातार) यावत् ईशानकल्प के देवों से हो सकती है, शेष भवों से (आए हुए जीवों में) यह योग्यता नहीं है ।
- -दशम द्वार ॥ १० ॥ विवेचन - चक्रवर्ती के विविधरत्नपद की प्राप्ति की विचारणा - प्रस्तुत रत्नद्वार में चक्रवर्ती के १४ रत्नों में से कौन-सा रत्न किन-किन को प्राप्त हो सकता है ? इस सम्बन्ध के विचारणा की गई है ।
रत्नद्वार का सार यह है कि चक्रवर्ती के १४ रत्नों में से सेनापतिरत्न, गाथापतिरत्न, वर्धकीरत्न, पुरोहितरत्न और स्त्रीरत्न पद के लिए माण्डलिकत्व के समान सप्तम नरक, तेजस्काय, वायुकाय और अनुत्तर विमान में से बिना व्यवधान के आने वाले अयोग्य हैं । अश्वरत्न और हस्तिरत्न पद के लिए प्रथम नरक से लेकर लगातार सहस्रारकल्प तक के देव योग्य हैं तथा चक्ररत्न, चर्मरत्न, छत्ररत्न, असिरत्न, मणिरत्न और काकिणीरत्न के लिए असुरकुमार से लेकर ईशानकल्प से आने वाले योग्य हैं । भव्य-द्रव्यदेव-उपपात-प्ररूपणा
१४७०. अह भंते ! असंजयभवियदव्वदेवाणं अविराहियसंजमाणं विराहियसंजमाणं अविराहियसंजमासंजमाणं विराहियसंजमासंजमाणं असण्णीणं तावसाणं कंदप्पियाणं चरग
१.
पण्णवणासुत्तं (प्रस्तावनादि) भा. ४, पृ. ५६९