Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 470
________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] [४४९ बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? [१४७३ उ.] हे गौतम ! सबसे अल्प देव-असंज्ञी-आयु है, (उससे) मनुष्य-असंज्ञी-आयु असंख्यातगुणी (अधिक) है, (उससे) तिर्यञ्चयोनिक असंज्ञी-आयु असंख्यातगुणी (अधिक) है, (और उससे भी) नैरयिक-असंज्ञी-आयु असंख्यातगुणी (अधिक) है । विवेचन-असंज्ञी की आयु : प्रकार, स्थिति और अल्पबहुत्व - प्रस्तुत तीन सूत्रों (१४७१ से १४७३) मे असंज्ञी-अवस्था में नरकादि आयु का जो बन्ध होता है, उसकी तथा उसके बांधने वाले के अल्पबहुत्व की चर्चा की गई है । . असंज्ञि-आयु का विवक्षित अर्थ - असंज्ञी होते हुए जीव परभव के योग्य जिस आयु का बन्ध करता है, वह असंज्ञी-आयु कहलाती है । नैरयिक के योग्य असंज्ञी की आयु नैरयिक-असंज्ञी-आयु कहलाती है। इसी प्रकार तिर्यग्योनिक-असंज्ञी-आयु, मनुष्य-असंज्ञी-आयु तथा देवासंज्ञी-आयु भी समझ लेनी चाहिए। यद्यपि असंज्ञी-अवस्था में भोगी जाने वाली आयु भी असंज्ञी-आयु कहलाती है, किन्तु यहाँ उसकी विवेक्षा नहीं है। __चारों प्रकार की असंज्ञी-आयु की स्थिति-(१) जघन्य नरकायु का बन्धं १० हजार वर्ष का कहा है, वह प्रथम नरक के प्रथम प्रस्तट (पाथड़े) की अपेक्षा से समझना चाहिए तथा उत्कृष्ट नरकायुबन्ध पल्योपम के असंख्यातवें भाग को उपार्जित करता है, यह कथन रत्नप्रभापृथ्वी के चौथे प्रतर के मध्यम स्थिति वाले नारक की अपेक्षा से समझना चाहिए । क्योंकि रत्नप्रभापृथ्वी के प्रथम प्रस्तट में जघन्य १० हजार वर्ष की स्थिति है, जबकि उत्कृष्ट स्थिति ९० हजार वर्ष की है । दूसरे प्रस्तट मे जघन्य १० लाख वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति ९० लाख वर्ष की है । इसी के तृतीय प्रस्तट में जघन्य स्थिति ९० लाख वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति एक कोटि पूर्व की है । चतुर्थ प्रस्तट में जघन्य एक कोटि पूर्व की है और उत्कृष्ट स्थिति सागरोपम के दशवें भाग की है । अत: यहाँ पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति मध्यम है । तिर्यञ्चयोनिक असंज्ञी-आयु उत्कृष्टतः पल्योपम के असंख्यातवे भाग की कही है, वह युगलिया तिर्यञ्च की अपेक्षा से समझना चाहिए । इसी प्रकार असंज्ञी-मनुष्यायु भी जो उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की कही है, वह भी युगलिक नरों की उपेक्षा से समझना चाहिए । असंज्ञी-आयुष्यों का अल्पबहुत्व - भी इन चारों के ह्रस्व और दीर्घ की अपेक्षा से समझना चाहिए। ॥प्रज्ञापना भगवती का बीसवाँ अन्तक्रियापद समाप्त ॥ १. २. ३. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्र ४०७ वही, मलय. वृत्ति, पत्र ४०७ वही, मलय. वृत्ति, पत्र ४०७

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