Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सत्तरहवाँ लेश्यापद : पंचम उद्देशक]
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[१२५२ उ.] हाँ, गौतम ! कृष्णलेश्या को प्राप्त होकर न तो उनके स्वभावरूप में, न उसके वर्णरूप में, न उसके गन्धरूप में, न उसके रसरूप में और न उसके स्पर्शरूप में बार-बार परिणत होती है।
[प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त होकर, न तो उसके स्वरूप में यावत् (न उसके वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शरूप में) बार-बार परिणत होती हैं ?
[उ.] गौतम ! वह (कृष्णलेश्या) आकार भावमात्र से हो, अथवा प्रतिभाग भावमात्र (प्रतिविम्बमात्र) से (नीललेश्या) होती है। (वास्तव में) यह कृष्णलेश्या ही (रहती) है, वह नीललेश्या नहीं हो जाती। वह (कृष्णलेश्या) वहाँ रही हुई उत्कर्ष को प्राप्त होती है, इसी हेतु से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त होकर न तो उसके स्वरूप में, यावत् (न ही उसके वर्ण-गंध-रस स्पर्शरूप में) बार बार परिणत होती हैं।
१२५३. से णूणं भंते !णीललेस्सा काउलेस्सं पप्पणो तारूवत्ताए जाव भुजो भुज्जो परिणमति? हंता गोयमा ! णीललेस्सा काउलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुजो भुजो परिणमति।
से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ णीललेस्सा काउलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुजो भुजो परिणमति ?
गोयमा ! आगारभावमाताए वा से सिया पलिभागभावमाताए वा सिया णीललेस्सा णं सा, णो खलु सा काउलेस्सा, तत्थ गता उस्सक्वति वा ओसक्कति वा, सेएणतुणं गोयमा ! एवं वुच्चइ णीललेस्सा काउलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुजो भुजो परिणमति । ___ [१२५३ प्र.] भगवन् ! क्या नीललेश्या, कापोतलेश्या को प्राप्त होकर न तो उसके स्वरूप में यावत् (न ही उसके वर्ण-गंध-रस-स्पर्शरूप में) बार बार परिणत होती है ?
[१२५३ उ.] हाँ, गौतम ! नीललेश्या कापोतलेश्या को प्राप्त होकर न उसके स्वरूप में यावत् (न ही उसके वर्ण-गंध-रस-स्पर्शरूप में) बार बार परिणत होती है।
[प्र.] भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि नीललेश्या, कापोतलेश्या को प्राप्त होकर न उसके स्वरूप में, यावत् पुनः पुनः परिणत होती हैं ?
[उ.] गौतम ! वह (नीललेश्या) आकारभावमात्र से ही, अथवा प्रतिविम्बमात्र से (कापोतलेश्या) होती है, (वास्तव में) वह नीललेश्या ही (रहती) है; वास्तव में वह कापोतलेश्या नहीं हो जाती। वहाँ रही हुई (वह नीललेश्या) घटती-बढ़ती है। इसी कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि नीललेश्या कापोतलेश्या को प्राप्त होकर न तो तद्रूप में यावत् (न ही उसके वर्ण-गंध-रस-स्पर्शरूप में) बार बार परिणत होती है।
१२५४. एवं काउलेस्सा तेउलेस्सं पप्प, तेउलेस्सा पम्हलेस्सं पप्प, पम्हलेस्सा सुक्कलेस्सं पप्प । '
[१२५४] इसी प्रकार कापोतलेश्या तेजोलेश्या को प्राप्त होकर, तेजोलेश्या पद्मलेश्या को प्राप्त होकर और पद्मलेश्या शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर (उसी के स्वरूप में, अर्थात्- वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शरूप में परिणत नहीं होती, ऐसा पूर्वयूक्तिपूर्वक समझना चाहिए ।)