Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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१३७३. अजोगिभवत्थकेवलिअणाहारए णं ० पुच्छा ?
गोयमा ! जहणणेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । दारं १४ ॥
[१३७३ प्र.] भगवन् ! अयोगि-भवस्थकेवली अनाहारक कितने काल तक अयोगि-भवस्थकेवलीअनाहारकरूप में रहता है ?
[१३७३ उ.] गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक ( अयोगिभवस्थकेवली अनाहारकरूप में रहता है।) - चौहदवां द्वार ॥१४॥
विवेचन - चौदहवाँ आहारकद्वार प्रस्तुत दस सूत्रों (सू. १३६४ से १३७३ तक) में विविध आहारक और अनाहारक के अवस्थानकालमाान की प्ररूपणा की गई है।
[ प्रज्ञापनासूत्रं
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छद्मस्थ आहारक का कालमान- जघन्य दो समय कम क्षुद्रभव ग्रहणकाल और उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक वह निरन्तर छद्मस्थ आहारक रूप में रहता है। क्षुद्रभव या क्षुल्लक भवग्रहण दो सौ छप्पन आवलिका रूप जानना चाहिए। जघन्यकालमान का स्पष्टीकरण - यद्यपि विग्रहगति चार और पांच समय की भी होती है, तथापि बहुलता से वह दो या तीन समय की होती है, चार या पांच समय को नहीं, वह विग्रहगति यहां विवक्षित नहीं है । अत: जब तीन समय की विग्रहगति होती है, तब जीव प्रारम्भ के दो समयों तक अनाहारक रहता है। अतएव आहारकत्व की प्ररूपणा में उन दो समयों से न्यून क्षुद्रभवग्रहण का कथन किया गया है। उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक आहारक रहता है, तत्पश्चात् नियम से विग्रहगति होती है और विग्रहगति मैं अनाहारक- पर्याय हो जाती है। इसी कारण यहाँ अनन्तकाल नहीं कहा है।
छद्मस्थ-अनाहारक का कालमान- जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट दो समय तक छद्मस्थअनाहारक जीव छद्मस्थ- अनाहारकपर्याय में रहता है। यहाँ तीन समय वाली विग्रहगति की अपेक्षा से दो समय का कथन किया गया है। चार और पांच समय वाली विग्रहगति यहाँ विवक्षित नहीं है।
उत्कृष्ट
१.
सयोगि-भवस्थकेवली- अनाहारक का अवस्थानकालमान- ( वह अजघन्य - अनुत्कृष्ट तीन समय तय अनाहरकपर्याय में रहता है। यह विधान केवलीसमुद्घात की अपेक्षा से है। आठ समय के केवलीसमुद्घात में तीसरे चौथे और पांचवें समय में केवली अनाहारकदशा में रहते हैं। इसमें जघन्य - उत्कृष्ट का विकल्प
२.
(क) उज्जुया एगबंका, दुहतो बंका गति विणिदिट्ठा ।
जुज्जइति चउवंकावि नाम चउपंच समयाओ ॥ १ ॥
(ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९३
प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९३