Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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४२८ ]
[प्रज्ञापनासूत्र
नैरयिकों में उत्पन्न होता है ?
[उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं हैं । [२] एवं असुरकुमारेसु वि जाव थणियकुमारेसु वि ।
[१४२७-२] इसी प्रकार (की वक्तव्यता) असुरकुमारों से स्तनितकुमारों तक (की उत्पत्ति के विषय में समझ लेना चाहिए ।)
१४२८. [१] पुढविक्काइए णं भंते ! पुढविक्काइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता पुढविक्काइएसु उववज्जेज्जा?
गोयमा ! अत्थेगइए उववजेज्जा, अत्थेगइए णो उववजेजा।
[१४२८-१ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिकों में से निकल कर (क्या) सीधां पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ?
[उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई (पृथ्वीकायिकों में ) उत्पन्न होता है, (और)कोई उत्पन्न नहीं होता। [२] जे णं भंते ! उववजेजा से णं केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए ? गोयमा ! णो इणदृठे समढे ।
[१४२८-२ प्र.] भगवन् ! (उनमें से) जो (पृथ्वीकायिकों में) उत्पन्न होता है, (क्या) वह केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त कर सकता है ?
[उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं हैं । - [३] एवं आउक्काइयादिसु णिरंतरं भाणियव्वं जाव चउरि दिएसु ।
[१४२८-३] इसी प्रकार की वक्तव्यता अप्कायिक आदि (अप्कायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय) से लेकर चतुरिन्द्रिय जीवों तक में निरन्तर (उत्पत्ति के विषय में) कहना चाहिए ।
[४] पंचेंदियतिरिक्खजोणिय-मणूसेसु जहा णेरइए (सु. १४२०-२२) ।
[१४२८-४] (पृथ्वीकायिक की पृथ्वीकायिकों में से निकल कर सीधे) पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों और मनुष्यों में (उत्पत्ति के विषय में) [सू. १४२०-२१ में उक्त] नैरयिक (की वक्तव्यता) के समान (कहना चाहिए ।)
[५] वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएसु पडिसेहो । [१४२८-५] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों में (पृथ्वीकायिक की उत्पत्ति का) निषेध (समझना