Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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बीसवाँ अन्तक्रियापद]
[४२९
चाहिए ।)
१४२९. एवं जहा पुढविक्काइओ भणिओ तहेव आउक्काइओ विवणस्सइकाइओ विभाणियव्वयो।
[१४२९] जैसे पृथ्वीकायिक (की चौवीस दण्डकों में उत्पत्ति के विषय में) कहा गया है, उसी प्रकार अप्कायिक एवं वनस्पतिकायिक के विषय में भी कहना चाहिए ।
१४३०.[१] तेउक्काइए णं भंते ! तेउक्काइएहितो अणंतरं अव्वट्टित्ता णेयइसु उववजेजा ? गोयमा ! णो इणठे समढे ।
[१४३०-१ प्र.] भगवन् ! तेजस्कायिक जीव, तेजस्कायिकों में से उद्वृत्त होकर क्या सीधा नारकों में उत्पन्न होता है ?
[उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है।
[२] एवं असुरकुमारेसु वि जाव थणियकुमारेसु वि । .. [१४३०-२] इसी प्रकार (तेजस्कायिक जीव की) असुरकुमारों से लेकर स्तनितकुमारों तक में भी उत्पत्ति का निषेध समझना चाहिए ।
१४३१. [१] पुढविक्काइय-आउ-तेउ-वाउ-वणस्सइ-बेइंदिय-तेइंदिए-चउरिं दिएसुअत्थेगइए उववजेजा, अत्थेगइए णो उपवज्जेजा।
[१४३१-१] पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक एवं वनस्पतिकायिकों में तथा द्वीन्द्रिय-त्रोन्द्रिय-चतुरिन्द्रियों में कोई (तेजस्कायिक) उत्पन्न होता है और कोई उत्पन्न नहीं होता है ।
[२] जे णं भतें ! उववज्जेज्जा से णं केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए ? गोयमा ! णो इणठे समढे ।
[१४३१-२ प्र.] भगवन् ! जो तेजस्कायिक (इनमें) उत्पन्न होता है, (क्या) वह केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त कर सकता है ?
[उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं हैं ।
१४३२.[१] तेउक्काइए णं भंते ! तेउक्काइएहितो अणंतरं अव्वट्टित्ता पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जेज्जा?
गोयमा ! अत्थेगइए उववजेजा, अत्थेगइए णो उववजेजा। [१४३२-१ प्र.] भगवन् ! तेजस्कायिक जीव, तेजस्कायिकों में से निकल कर क्या सीधा