Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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बीसवाँ अन्तक्रियापद]
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__ पृथ्वीकायिकों की उत्पत्ति आदि - पृथ्वीकायिक जीव नारकों और देवों में सीधे उत्पन्न नहीं होते, क्योकि उनमें विशिष्ट मनोद्रव्य सम्भव नहीं होता, इस कारण तीव्र संक्लेश एवं विशुद्ध अध्यवसाय नहीं हो सकता । मनुष्यों में उत्पन्न होने पर ये अन्तक्रिया भी कर सकते हैं । ___ भवनपति देवों की उत्पत्ति आदि - असुरकुमारदि १० प्रकार के भवनपति देव पृथ्वी-वायु-वनस्पति में उत्पन्न होते हैं । उधर ईशान (द्वितीय) देवलोक तक उनकी उत्पत्ति होती है । इन देवों में उत्पन्न होने पर वे केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण नहीं कर सकते । शेष सब बातें नैरयिकों के समान समझ लेनी चाहिए ।।
तेजस्कायिक, वायुकायिक का मनुष्यों में उत्पत्तिनिषेध - ये दोनों सीधे मनुष्यों में उत्पन्न नहीं हो सकते, क्योंकि इनके परिणाम क्लिष्ट होने से इनके मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और मनुष्यायु का बन्ध होना असम्भव होता है । ये तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों में उत्पन्न होकर श्रवणन्द्रिय प्राप्त होने से केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु संक्लिष्ट परिणाम होने से कैवलिकीबोधि (धर्म) का बोध प्राप्त नहीं कर सकते ।
विकलेन्द्रियों की उत्पत्ति-प्ररुपणा - द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय जीव, पृथ्वीकायिकों के समान देवों और नारकों को छोड़ कर शेष समस्त स्थानों में उत्पन्न हो सकते हैं । ये तथाविध भवस्वभाव के कारण अन्तक्रिया नहीं कर पाते, किन्तु मनुष्यों में उत्पन्न होने पर अनगार बन कर मनःपर्यवज्ञान तक भी प्राप्त कर सकते हैं । पंचम : तीर्थकरद्वार
१४४४. रयणप्पभापुढविणेरइए णं भंते ! रयणप्पभापुढविणेरइहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता तित्थगरत्तं लभेजा?
गोयमा ! अत्थेगइए लभेजा, अत्थेगइए णो लभेजा। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ अत्थेगइए लभेजा अत्थेगइए णो लभेजा ?
गोयमा ! जस्स णं रयप्पभापुढविणेरइयस्स तित्थगरणाम-गोयाइं बद्वाइं पढ़ाई निधत्ताई कडाई पट्ठवियाई णिविट्ठाइं अभिनिविट्ठाइं अभिसमण्णागयाइं उदिण्णाइं णो उवसंताई भवंति से णं रयणप्पभापुढविणेरइए रयणप्पभापुढविणेरइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता तित्थगरत्तं लभेजा, जस्स णं रयप्पभापुढविणेरइयस्स तित्थगरणाम-गोयाई णो बद्वाइं जाव णो उदिण्णाई उवसंताई भवंति से णं रयणप्पभापुढविणेरइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता तित्थगरत्तं णो लभेजा।
वही, पत्र ४०१ वही, पत्र ४०० वही, पत्र ४०१ वही, पत्र ४०२