Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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बीसवाँ अन्तक्रियापद]
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(७) बलदेवद्वार - इसमें बलदेवत्वप्राप्ति सम्बन्धी चर्चा है । (८) वासुदेवद्वार - इसमें वासुदेवत्वप्राप्ति सम्बन्धी चर्चा है (९) माण्डलिकद्वार - इसमें माण्डलिकत्वप्राप्ति सम्बन्धी चर्चा है । (१०) रत्नद्वार - इसमें सेनापतिरत्न आदि चक्रवर्ती के रत्नों की प्राप्ति से सम्बन्धित निरूपण है।
अन्तक्रियाः दो अर्थों में - प्रस्तुत पद में अन्तक्रिया शब्द दो अर्थो में प्रयुक्त हुआ है-(१) कर्मों या भव के अन्त (क्षय) करने की क्रिया और (२) अन्त अर्थात्-अवसान (मरण) की क्रिया। वैसे तो जैनागमों में अन्तक्रिया समस्त कर्मो (या भव) के अन्त करने के अर्थ में रूढ़ है, तथापि भव का अन्त करने को क्रिया से दो परिणाम आते हैं-या तो मोक्ष प्राप्त होता है, या मरण होता है-उस भव के शरीर से छुटकारा मिलता है । इसलिए यहाँ अन्तक्रिया शब्द इन दोनों (मोक्ष और मरण) अर्थो में प्रयुक्त हुआ है। प्रस्तुत पद में इसी अन्तक्रिया का विचार चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में दस द्वारों के माध्यम से किया गया है ।
इन दस द्वारों के आधार पर कहा जा सकता है कि प्रथम के तीन द्वारों में अन्तक्रिया अर्थात्-मोक्ष को चर्चा है और बाद के द्वारों का सम्बन्ध भी अन्तक्रिया के साथ है, किन्तु वहाँ अन्तक्रिया का अर्थ मृत्यु करें तभी संगति बैठ सकती है । इसके अतिरिक्त इन द्वारों में अन्तक्रिया का अर्थ-मोक्ष भी घटित हो सकता है, क्योंकि उन द्वारों में उन-उन योनियों में उद्वर्त्तना आदि करने वालों को मोक्ष संभव है या नहीं? ऐसा प्रश्न भी प्रस्तुत किया गया है। प्रथम : अन्तक्रियाद्वार
१४०७.[१] जीवे णं भंते । अंतकिरियं करेजा ? गोयमा ! अत्थेगइए करेजा, अत्थेगइए, णो करेजा? [१४०७-१ प्र.] भगवन् ! क्या जीव अन्तक्रिया करता है ? [ए.] हाँ गौतम ! कोई जीव (अन्तक्रिया करता है ।) (और) कोई जीव नहीं करता है ।
[२] एवं णेरइए जाव वेमाणिए। ___ [१४०७-२] इसी प्रकार नैरयिक से लेकर वैमानिक तक की अन्तक्रिया के सम्बन्ध में समझ लेना चाहिए। १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९६-३९७ २. (क) अन्तक्रियामिति - अन्तः-अवसानं, तच्च प्रस्तावादिह कर्मणामवसातव्यम्, तस्य क्रिया - करणमन्तक्रिया - कर्मान्तकरण
मोक्ष इति भावार्थः। - प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्र ३९७ (ख) पण्णवण्णासुत्तं (परिशिष्ट-प्रस्तावनात्मक) भा. २, पृ. ११२