Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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अन्तर्मुहूर्त हैं, वे दोनों मिलकर भी अन्तर्मुहूर्त ही होते हैं, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त के भी असंख्य भेद हैं।
नीलेश्यी का उत्कृष्टकाल - पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दस सागरोपम का है। यह उत्कृष्ट कालमान पांचवीं नरकपृथ्वी की अपेक्षा से समझना चाहिए। क्योंकि पांचवें नरक के प्रथम पाथड़े (प्रस्तट) में नीललेश्या होती है। उक्त पाथड़े में उपर्युक्त स्थिति होती है। पूर्वभव और उत्तरभव सम्बन्धी दोनों अन्तर्मुहूर्त पल्योपम के असंख्यातवें भाग में ही सम्मिलित हो जाते हैं। अतएव उनकी पृथक् विवक्षा नहीं की गई है।
कापोतलेश्यी जीव का उत्कृष्टकाल - पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागरोपम कहा गया है। वह तीसरी नरकपृथ्वी की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि तीसरी नरकपृथ्वी के प्रथम पाथड़े में इतनी स्थिति है और उसमें कापोतलेश्या भी होती हैं।
तेजोलेश्यी जीव का उत्कृष्टकाल - पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दो सागरोपम कहा गया है। यह ईशान देवलोक की अपेक्षा से समझना चाहिए। क्योंकि ईशान देवलोक के देवों में तेजोलेश्या होती है और उनकी उत्कृष्ट स्थिति भी यही है ।
पद्मलेश्यी जीव का उत्कृष्टकाल - अन्तर्मुहूर्त अधिक दस सागरोपम का कहा गया है। वह ब्रह्मलोक कल्प की अपेक्षा से समझना चाहिए। ब्रह्मलोक के देव पद्मलेश्या वाले होते हैं और उनकी उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम की है। पूर्वभव और उत्तरभव सम्बन्धी दोनों अन्तर्मुहूर्त एक ही अन्तर्मुहूर्त में समाविष्ट हो जाते हैं, इसी कारण यहाँ अन्तर्मुहूर्त अधिक कहा गया है।
शुक्लेश्यावान् का उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम कहा गया है । यह कथन अनुत्तरविमानवासी देवों की अपेक्षा से समझना चाहिए । क्योंकि उनमें शुक्ललेश्या होती है और उनकी उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की है । अन्तर्मुहूर्त अधिक पूर्वोक्त युक्ति से समझ लेना चाहिए ।"
[ प्रज्ञापनासूत्रं
१.
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अलेश्य जीवों की कालावस्थिति- अलेश्य जीव अयोगीकेवली और सिद्ध होते हैं, वे सदाकाल लेश्यातीत रहते हैं। इसलिए अलेश्य अवस्था को सादि-अनन्त कहा गया है।
नौवाँ सम्यक्त्वद्वार
१३४३. सम्मद्दिट्ठी णं भंते ! सम्मद्दिट्टि० केवचिरं होइ ?
गोमा ! सम्मट्ठी दुविहे पण्णत्ते । तं जहा
(क) 'पंचमियाए मिस्सा ।'
(ख) 'तईयाए मीसिया ।'
(ग) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८७
२. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८७
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सादीए वा अपज्जवसिए १ सादीए वा