Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रज्ञापनासूत्रं
१३५२. अण्णाणी-मइअण्णाणी-सुयअण्णाणी णं० पुच्छा ?
गोयमा ! अण्णाणी मतिअण्णाणी सुयअण्णाणी तिविहे पण्णत्ते। तं जहा - अणादीए वा अपज्जवसिए १ अणादीए वा सपजवसिए २ सादीए वाा सपजवसिए ३। तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं, अणंताओ उस्सप्पिणि ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अवढं पोग्गलपरियट्ट देसूणं ।
[१३५२ प्र.] भगवन् ! अज्ञानी, मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी कितने काल तक (निरन्तर स्व-पर्याय में रहते हैं ?)
[१३५२ उ.] गौतम ! अज्ञानी, मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी तीन-तीन प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार- (१) अनादि-अपर्यवसित, (२) अनादि-सपर्यवसित और (३) सादि-सपर्यवसित। उनमें से जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक (अर्थात्) काल की अपेक्षा से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों तक एवं क्षेत्र की अपेक्षा से देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरावर्त तक (निरन्तर स्वस्वपर्याय में रहते हैं।)
१३५३. विभंगणाणी णं भंते ! ० पुच्छा?
गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई देसूणाए पुव्वकोडीए अब्भइयाई। दारं १०॥
[१३५३ प्र.] भगवन् ! विभंगज्ञानी कितने काल तक विभंगज्ञानी के रूप में रहता है ?
[१३५३ उ.] गौतम ! जघन्य एक समय तक, उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम तक (वह विभंगज्ञानी-पर्याय में लगातार बना रहता है।)
दसवाँ द्वार ॥१०॥ विवेचन - दसवाँ ज्ञानद्वार- प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. १३४६ से १३५३ तक) में सामान्य ज्ञानी आभिनिबोधिक आदि ज्ञानी, अज्ञानी, मत्यादि अज्ञानी, स्व-स्वपर्याय में कितने काल तक रहते हैं ? इसका चिन्तन प्रस्तुत किया गया है।
ज्ञानी-अज्ञानी की परिभाषा- जिसमें सम्यग्दर्शनपूर्वक सम्यग्ज्ञान हो, वह ज्ञानी कहलाता है; जिसमें सम्यग्ज्ञान न हो, वह अज्ञानी कहलाता है।
द्विविध ज्ञानी - (१) सादि-अपर्यवसित- जिस जीव को सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् सदैव बना रहे, वह क्षायिक सम्यग्दृष्टि ज्ञानी या केवलज्ञानी सादि-अपर्यवसित ज्ञानी है।(२)सादि-सपर्यवसितजिसका सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन का अभाव होने पर नष्ट होने वाला है, वह सादि-सपर्यवसित ज्ञानी है। केवलज्ञान के सिवाय अन्य ज्ञानों की अपेक्षा ऐसा ज्ञानी सादि-सपर्यवसित कहलाता है, क्योंकि वे ज्ञान नियतकालभावी हैं, अनन्त नहीं हैं। इन दोनों में से सादि-सान्त ज्ञानी-अवस्था जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक रहती है, उसके पश्चात् मिथ्यात्व के उदय से ज्ञानपरिणाम का विनाश हो जाता है। उत्कृष्टकाल जो ६६ सागरोपम से कुछ