Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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| प्रज्ञापनासूत्रं
[१२९८ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों तक (वनस्पतिकायिक पर्याप्त पर्याय में बना रहता है।)
१२९९. तसकाइयपजत्तए णं पुच्छा ? गोयमा ! जहणणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमयपुहत्तं । [१२९९ प्र.] भगवन् ! जसकायिक-पर्याप्तक कितने काल तक त्रसकायिकपर्याय में बना रहता है ?
[१२९९ उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक शतसागरोपम-पृथक्त्व तक (वह पर्याप्त त्रसकायिक रूप में रहता है।)
१३००. सुहुमे णं भंते ! सुहुमे त्ति कालओ केवचिरं होति ?
गोयमा !जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं असंखेनं कालं असंखेजाओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ असंखेजा लोगा।
[१३०० प्र.] भगवन् ! सूक्ष्म जीव कितने काल तक सूक्ष्म रूप में रहता है ?
[१३०० उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक, (अर्थात्) कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणियों तक और क्षेत्रत: असंख्यातलोक तक (सूक्ष्म जीव सूक्ष्मपर्याय में बना रहता है।)
- १३०१. सुहुमपुढविक्काइए सुहुमआउक्काइए सुहुमतेउक्काइए सुहुमवाउक्काइए सुहुमवणस्सइकाइए सुहुमणिगोदे वि जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं असंखेजं कालं, असंखेजाओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ असंखेज्जा लोगा।
[१३०१] इसी प्रकार सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म अप्कायिक सूक्ष्म तेजस्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक एवं सूक्ष्म निगोद भी जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक और उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक(अर्थात्-) कालत:- असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों तक एवं क्षेत्रतः असंख्यात लोक तक (ये स्वस्वपर्याय में बने रहते हैं।)
१३०२. सुहुमे णं भंते ! अपज्जत्तए त्ति ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं । [१३०२ प्र.] भगवन् ! सूक्ष्म अपर्याप्तक, सूक्ष्म अपर्याप्तक रूप में कितने काल तक लगातार रहता है ? [१३०२ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। १३०३. पुढविक्काइय-आउक्काइए-तेउक्काइए-वाउक्काइय-वणस्सइकाइयाण य एवं चेव। [१३०३] (सूक्ष्म) पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक