Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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अठारहवाँकायस्थितिपद]
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सवेदी की तरह समझनी चाहिए।
क्रोध-मान-मायाकषायी की कालावस्थिति - क्रोध, मान और माया कषाय से युक्त जीव निरन्तर क्रोधादि कषायी के रूप में अन्तर्मुहूर्त तक ही रहते हैं, क्योंकि क्रोधदि किसी एक कषाय का उदय (विशिष्ट उपयोग) कम से कम और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक ही रह सकता है। जीव का स्वभाव ही ऐसा है कि क्रोधादि कषाय का उदय अन्तर्मुहूर्त के अधिक नहीं रहता।
लोभकषायी जीव की कालावस्थिति - जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक लोभकषायी, लोभकषायी के रूप में निरन्तर रहता है। जब कोई उपशमक जीव उपशमश्रेणी का अन्त होने पर (ग्यारहवें गुणस्थान में) उपशान्तराग होने के बाद उपशमश्रेणी से गिरता है और लोभ के अंश के वेदन के प्रथम समय में ही मृत्यु को प्राप्त होकर देवलोक में उत्पन्न होता है तथा क्रोधकषायी, मानकषायी और मायाकषायी होता है, उस समय एक समय तक लोभकषायी पाया जाता है। ___ प्रश्न किया जा सकता है कि जो युक्ति लोभकषाय के सम्बन्ध में दी गई है, उसी युक्ति के अनुसार क्रोधादि का भी जघन्य एक समय तक रहना क्यों नहीं बतलाया गया ? इसका समाधान यह है कि यद्यपि उपशमश्रेणी से गिरता हुआ जीव क्रोधकषाय के वेदन के प्रथम समय में, मान के वेदन के प्रथम समय में अथवा माया के वेदन के प्रथम समय में मृत्यु पाकर देवलोक में उत्पन्न होता है, तथापि स्वभावशात् जिस कषाय के उदय के साथ जीव ने काल किया है, वही कषाय आगामी भव में भी अन्तर्मुहूर्त तक रहती है। इसी से अधिकृत सूत्र. के प्रामण्य से ज्ञात होता है कि क्रोध, मान और माया कषाय अनेक समय तक रहती है।
अकषायी की कालावस्थिति - अकषायी-विषयक सूत्र, अवेदक सूत्र की युक्ति के अनुसार समझ लेना चाहिए। क्षपकश्रेणी प्राप्त अकषायी सादि-अनन्त होता है, क्योंकि क्षपकश्रेणी से उसका प्रतिपात नहीं होता। किन्तु जो उपशमश्रेणी-आरूढ़ होकर अकषायी होता है, वह सादि-सान्त होता है। अत: जघन्य एक समय तक अकषायपर्याय से युक्त रहता है। एक समय अकषायी होकर दूसरे समय में वह मर कर तत्काल (उसी समय में) देवलोक में उत्पन्न होता है और कषाय के उदय से सकषायी हो जाता है। इस कारण अकषायित्व का जघन्यकाल एक समय का है। उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक वह अकषायी रहता है, तत्पश्चात् उपशमश्रेणी से अवश्य ही पतित होकर सकषायी हो जाता है। आठवाँ लेश्याद्वार
१३३५. सलेस्से णं भंते ! सेलेसे त्ति० पुच्छा ?
गोयमा ! सलेसे दुविहे पण्णतते । तं जहा- अणाादीए वा अपज्जवसिए १ अणादीए वा सपज्जवसिए २।
१. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८६ २. प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भाग ४, पृ. ४०८