Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
३८०]
[प्रज्ञापनासूत्रं
१३३३. लोभकसाई णं भंते ! लोभ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं एवं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं। [१३३३ प्र.] भगवन् ! लोभकषायी, लोकषायी के रूप में कितने काल तक (लगातार) रहता है ?
[१३३३ उ.] गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक (लोभकषायी निरन्तर लोभकषायीपर्याय से युक्त रहता है।)
१३३४. अकसाई णं भंते ! अकसाई ति कालओ केवचिरं होइ ?
गोयमा ! अकसाई दुविहे पण्णत्ते। तं जहा - सादीए वा अपज्जवसिए १ सादीए वा सपज्जवसिए २। तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं। दारं ७॥
[१३३४ प्र.] भगवन् ! अकषायी, अकषायी के रूप में कितने काल तक रहता है ?
[१३३४ उ.] गौतम ! अकषायी दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार - (१) सादि-अपर्यवसित और (२) सादि-अपर्यवसित। इनमें से जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक (अकषायीरूप में रहता है।)
- सप्तम द्वार ॥७॥ __ विवेचन - सप्तम कषायद्वार - प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. १३३१ से १३३४ तक) में सकषायी, अकषायी तथा क्रोधदिकषायी के स्व-स्वपर्याय में निरन्तर अवस्थित रहने का कालमान बताया गया है।
त्रिविध सकषायी की व्याख्या- जो जीव कषायसहित होता है, वह सकषायी कहलाता है। कषाय जीव का एक विकारी परिणाम है। सकषायी जीव तीन प्रकार के होते हैं- (१) अनादि-अनन्त- जो जीव उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणी को कदापि प्राप्त नहीं करेगा, वह अनादि-अनन्त सकषायी है, क्योंकि उसके
कभी विच्छेद नहीं हो सकता।(२)अनादि-सान्त- जो जीव कभी उपशमश्रेणी या क्षपक श्रेणी को प्राप्त करेगा, वह अनादि-सान्त सकषायी है, क्योंकि उपशमश्रेणी अथवा क्षपकश्रेणी प्राप्त करने पर ग्यारहवें गुणस्थान में या बारहवें गुणस्थान में उसके कषायोदय का विच्छेद हो जाता है।(३) सादि-सान्तजो जीव उपशमश्रेणी प्राप्त करके और अकषायी होकर पुन: उपशमश्रेणी से प्रतिपतित होकर सकषायी हो जाता है, वह सादि-सान्त सकषायी कहलाता है। क्योंकि उसके कषायोदय की आदि भी है और भविष्य में पुनः कषायोदय का अन्त भी हो जाएगा।
इनमें जो सादि-सान्त सकषायी है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक निरन्तर सकषायी रहता है। इस विषय में अनन्तकाल का काल और क्षेत्र की दृष्टि से परिमाण और तद्विषयक युक्ति
१. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८६
(ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भाग ४, पृ. ४०४