Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रज्ञापनासूत्रं
[१३२३] इसी प्रकार वचनयोगी (का वचनयोगी रूप में रहने का काल समझना चाहिए ।) १३२४. कायजोगी णं भंते ! कायजोगि त्ति०? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो ।' [१३२४ प्र.] भगवन् ! काययोगी, काययोगी के रूप में कितने काल तक रहता है ?
[१३२४ उ.] गौतम ! जघन्य-अन्तर्मुहूर्त तक ओर उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक (वह काययोगीपर्याय में रहता है।)
१३२५. अजोगी णं भंते ! अजोगीति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! सादीए अपज्जवसिए । दारं ५॥ [१३२५ प्र.] भगवन् ! अयोगी, अयोगीपर्याय में कितने काल तक रहता है ? [१३२४ उ.] गौतम ! (वह) सादि-अपर्यवसित (अनन्त) है। पंचमद्वार ॥ ५ ॥
विवेचन - पंचम योगद्वार - प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. १३२१ से १३२५ तक) में सयोगी, मन-वचनकाययोगी और अयोगी की स्व-स्वपर्याय में रहने की कालस्थिति सम्बन्धी प्ररूपणा की गयी है।
__योग और सयोगी-अयोगी - मन, वचन और काय का व्यापार योग कहलाता है। वह योग जिसमें विद्यमान हो, वह सयोगी कहलाता है। जैनसिद्धान्त की दृष्टि से सयोगी-अवस्था तेरहवें गुणस्थानपर्यन्त रहती . है। उसके पश्चात् चौदहवें गुणस्थान में जीव अयोगी हो जाता है। सिद्ध-अवस्था भी अयोगी अवस्था है, जिसकी आदि तो है, पर अन्त नहीं हैं, क्योंकि सिद्धावस्था प्राप्त होने के बाद योगों से सर्वथा छुटकारा हो जाता है।
सयोगी जीव के दो भेद- अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त । जीव भविष्य में कभी मोक्ष प्राप्त नहीं करेगा, सदैव कम से कम एक योग से युक्त बना रहेगा, ऐसा अभव्य जीव अनादि-अनन्त सयोगी है। जो जीव भविष्य में कभी मोक्ष प्राप्त करेगा, वह अनादि-सान्त सयोगी है। वह भव्य जीव है।
मनोयोगी की मनोयोगिपर्याय में कालस्थिति - मनोयोगी जीव जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक लगातार मनोयोगीपर्याय से युक्त रहता है। जब कोई जीव औदारिककाययोग के द्वारा प्रथम समय में मनोयोग्य पुद्गलों को ग्रहण करके, दूसर समय में उन्हें मन के रूप में परिणत करके त्यागता है और तृतीय समय में उपरत हो (रूक) जाता है, या मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, तब वह एक समय तक मनोयोगी रहता है। उत्कृष्ट : अन्तर्मुहूर्त तक मनोयोगी रहता है। जब जीव निरन्तर मनोयोग्य पुद्गलों का ग्रहण और त्याग करता है, तब वह अन्तर्मुहूर्त तक ही ऐसा करता है। उसके पश्चात् अवश्य ही जीव उससे स्वभावतः उपरत हो जाता है। तत्पश्चात् वह दोबारा मनोयोग्य पुद्गलों का ग्रहण एवं निसर्ग करता है, किन्तु काल की सूक्ष्मता के कारण कदाचित् उसे बीच के व्यवधान का संवेदन नहीं होता। तात्पर्य यह है कि मनोयोग्य पुद्गलों के ग्रहण