Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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अट्ठारसमं कायद्विइपयं
अठारहवाँ कायस्थितिपद
प्राथमिक प्रज्ञापनासूत्र का यह अठारहवाँ 'कायस्थितिपद' पद है। + 'काय' का अर्थ यहाँ 'पर्याय' है। सामान्य रूप अथवा विशेषरूप पर्याय (काय) में किसी जीव के
लगातार- निरन्तर रहने को कायस्थिति कहते हैं। इस कायस्थितिपद में चिन्तन प्रस्तुत किया गया है कि
चौवीसदण्डकवर्ती जीव और अजीव अपनी-अपनी पर्याय में लगातार कितने काल तक रहते हैं। * चतुर्थ 'स्थितिपद' और इस 'कायस्थितिपद' में यह अन्तर है कि स्थितिपद में तो चौवीसदण्डकवर्ती
जीवों की भवस्थिति, अर्थात्- एक भव की अपेक्षा से आयुष्य का विचार है, जबकि इस पद में यह विचार किया गया है कि एक जीव मर कर बारंबार उसी भव में जन्म लेता रहे तो, ऐसे सब भवों की परम्परा की कालमर्यादा अथवा उन सभी भवों के आयुष्य का कुल जोड़ कितना होगा? प्रस्तुत पद में जीव, गति, इन्द्रिय, काय, योग, भेद, कषाय, लेश्या, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, संयत, उपयोग, आहार, भाषक, परीत, पर्याय, सूक्ष्म, संज्ञी, भवसिद्धिक, अस्तिकाय और चरम, इन २२ द्वारों के माध्यम से चौवीसदण्डकवर्ती समस्त जीवों की उस-उस काय में रहने की कालावधि का विचार किया गया है। प्रथम जीवद्वार-जीव का अस्तित्व सर्वकाल में है। इससे जीव का अविनाशित्व सिद्ध होता है। द्वितीय गतिद्वार में चारों गतियों के जीवों के स्त्री-पुरुष रूप पर्याय की कालावस्थिति का विचार है। तृतीय इन्द्रियद्वार में सेन्द्रिय निरिन्द्रिय तथा एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों की स्व-स्वपर्याय में कालावस्थिति का विचार है। चतुर्थ कायद्वार में तैजस-कार्मण काय या षट्काय वाले जीवों के स्व-स्वपर्याय में निरन्तर रहने की कालावधि बताई है। पंचम योगद्वार में मनोयोगी और वचनयोगी का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक का बताया है। काययोगी की कायस्थिति उत्कृष्ट वनस्पति की बताई है। छठे वेदद्वार में सवेदक, अवेदक, स्त्री-पुरूष-नपुंसकवेदी की कायस्थिति बताई है। सप्तम
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१. (क) पण्णवणासुत्तं भा. २ प्रस्तावना, पृ. १०७ से ११० तक
(ख) जैनागम साहित्य : मनन और मीमांसा, पृ. २४७-२४८ (ग) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३७४