Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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३३८]
[प्रज्ञापनासूत्र
वा बहुविहं वा परिणामं परिणमति। एवं जाव सुक्कलेस्सा।
[१२४२ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या कितने प्रकार के परिणाम में परिणत होती हैं ?
[१२४२ उ.] गौतम ! कृष्णलेश्या तीन प्रकार के, नौ प्रकार के, सत्ताईस प्रकार के, इक्यासी प्रकार के या दो सौ तेतालीस प्रकार के अथवा बहुत-से या बहुत प्रकार के परिणाम में परिणत होती है। कृष्णलेश्या के परिणामों के कथन की तरह नीललेश्या से लेकर शुक्ललेश्या तक के परिणामों का भी कथन करना चाहिए।
विवेचन - दसवाँ परिणामाधिकार - प्रस्तुत सूत्र में कृष्णादि छहों लेश्याओं के विभिन्न प्रकार के परिणामों से परिणत होने की प्ररूपणा की गई है।
परिणामों के प्रकार - (१)तीन - जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट परिणाम । (२) नौ - इन तीनों में से प्रत्येक के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद करने से नौ प्रकार का परिणाम होता है।(३) सत्ताईस- इन्हीं नौ में प्रत्येक के पुनः तीन-तीन भेद करने पर २७ भेद हो जाते हैं। (४) इक्यासी - इन्हीं २७ भेदों के फिर वे ही जघन्य-मध्यम-उत्कृष्ट भेद करने पर इक्यासी प्रकार हो जाते हैं। (५) दो सौ तेतालीस भेद- उनके पुनः तीन-तीन भेद करने पर २४३ भेद होते हैं । इस प्रकार उत्तरोत्तर भेद-प्रभेद किये जाएँ तो बहुत और बहुत प्रकार के परिणमन कृष्णलेश्या के होते हैं। ऐसे ही परिणामें के प्रकार शुक्ललेश्या तक समझ लेने चाहिए।' ग्यारहवें प्रदेशाधिकार से चौदहवें स्थानाधिकार तक की प्ररूपणा
१२४३. कण्हलेस्सा णं भंते ! कतिपदेसिया पण्णत्ता ? गोयमा ! अणंतपदेसिया पण्णत्ता । एवं जाव सुक्कलेस्सा। [१२४३ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या कितने प्रदेश वाली कही है ?
[१२४३ उ.] गौतम ! (कृष्णलेश्या) अनन्तप्रदेशों वाली है (क्योंकि कृष्णलेश्यायोग्य परमाणु अनन्तानन्त संख्या वाले हैं)। इसी प्रकार (नीललेश्या से) यावत् शुक्ललेश्या तक (प्रदेशों का कथन करना चाहिए।)
१२४४. कण्हलेस्सा णं भंते ! कइपएसोगाढा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेजपएसोगाढा पण्णत्ता । एवं जाव सुक्कलेस्सा। [१२४४ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या आकाश के कितने प्रदेशों में अवगाढ़ हैं ?
[१२४४ उ.] गौतम ! (कृष्णलेश्या) असंख्यात आकाश प्रदेशों में अवगाढ़ है। इसी प्रकार शुक्ललेश्या तक असंख्यात प्रदेशावगाढ़ समझनी चाहिए।
१२४५. कण्हलेस्साए णं भंते ! केवतियाओ वग्गणाओ पण्णत्ताओ?
१. प्रज्ञापनाात्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३६८