Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
२४०]
[ प्रज्ञापनासूत्र प्रयोगी भी होते हैं, औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी भी होते हैं। १- अथवा कोई एक (द्वीन्द्रिय जीव) कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है, २- या बहुत-से (द्वीन्द्रिय जीव) कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं।
(त्रीन्द्रिय एवं) चतुरिन्द्रियों (की प्रयोग सम्बन्धी वक्तव्यता) भी इसी प्रकार (समझनी चाहिए।) ___१०८२. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया जहाणेरइया (सु.१०७८)।णवर ओरालियसरीरकायप्पओगी वि ओरालियमीससरीरकायप्पओगी वि, अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पआसेगी य १ अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य २ । __[१०८२] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों की प्रयोग सम्बन्धी वक्तव्यता (सू. १०७८ में उल्लिखि) नैरयिकों की प्रयोगवक्तव्यता के समान कहना चाहिए। विशेष यह है कि यह (एक पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक) औदारिकशरीरकाय-प्रयोगी भी होता है तथा औदारिकशरीरकाय-प्रयोगी भी होता है। १- अथवा कोई एक (पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक) कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी भी होता है, २- अथवा बहुत-से (पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीव) कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं।
विवेचन- एकेन्द्रियों, विकलेन्द्रियों और तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों की विभाग से प्रयोगसम्बन्धी प्ररूपणाप्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. १०८० से १०८२ लक) में एक एकेन्द्रिय से लेकर तिर्यंचयपंचेन्द्रिय तक के जीवों की एकत्व-बहुत्व की अपेक्षा से प्रयोगसम्बन्धी प्ररूपणा की गई है।
निष्कर्ष - पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक एवं वनस्पतिकायिक जीव औदारिकशरीरकायप्रयोगी औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी एवं कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी सदैव बहुसंख्या में पाए जाते हैं, इसलिए ये तीनों पद बहुवचनान्त हैं, यह एक भंग है; किन्तु वायुकायिकों में पूर्वोक्त तीन प्रयोगों के अतिरिक्त वैक्रियद्धिक (वैक्रियशरीरकाय-प्रयोग एवं वैक्रियमिश्रशरीरकाय-प्रयोग) भी पाए जाते हैं। अर्थात्- वायुकायिकों में ये पांचों पद सदैव बहुत्वरूप में पाए जाते हैं । इन पांचों का बहुत्वरूप एक भंग होता है।
सभी द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय जीव असत्यामृषावचन-प्रयोगी होते हैं, क्योंकि वे न तो सत्यवचन का प्रयोग करते हैं, न असत्यवचन का प्रयोग करते हैं, और न ही उभयरूप वचन का प्रयोग करते हैं। यद्यपि द्वीन्द्रियादि जीवों के अन्तर्मुहूर्तमात्र उपपात का विरहकाल है, किन्तु उपपातविरहकाल का अन्तर्मुहूर्त छोटा है और औदारिकमिश्र का अन्तर्मुहूर्त प्रमाण में बहुत बड़ा होता है। अत: उनमें औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी सदैव पाये जाते हैं। इस प्रकार इन तीनों का एक भंग हुआ। उनमें कभी-कभी एक भी कार्मणशरीरकायप्रयोगी नहीं पाया जाता, क्योंकि उनके उपपात का विरह अन्तर्मुहूर्त कहा गया है। जब वे पाए जाते हैं तो जघन्यतः एक या दो और उत्कृष्टतः असंख्यात पाए जाते हैं। इस प्रकार जब एक भी कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी नहीं पाया जाता है, तब पूर्वोक्त तीनों पदों का प्रथम भंग होता है। जब एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी पाया जाता है, तब एकत्वविशिष्ट दूसरा भंग होता है। जब बहुत-से द्वीन्द्रियादि जीव कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं, तब तीसरा भंग होता है।