Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रज्ञापनासूत्र
विशुद्धि वाला होने पर भी बहुत अधिक दूरवर्ती क्षेत्र को अवधिज्ञान-दर्शन से नहीं जान-देख पाता, बल्कि थोड़े ही अधिक क्षेत्र को जान-देख पाता है। यह कथन एक ही नरकपृथ्वी के नारकों की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि सातवीं नरक का कृष्णलेश्यी नारक जघन्य आधा गाऊ और उत्कृष्ट एक गाऊ जानता है, जबकि छठी नरक का कृष्णलेश्यावान् नारक जघन्य एक गाऊ और उत्कृष्ट डेढ गाऊ जानता है, पांचवीं-छठी नरकपृथ्वी वाला कृष्णलेश्यी नारक जघन्य नारक डेढ गाऊ और उत्कृष्ट किञ्चित् न्यून दो गाऊ जानता है। इस प्रकार विविध पृथ्वी के कृष्णलेश्यी नारकों के जानने-देखने में अन्तर होने से दोषापत्ति होगी; इसलिए एक ही नरकपृथ्वी के कृष्णलेश्यी नारकों की अपेक्षा से यह कथन यथार्थ है। अधिक न देखने-जानने का कारण यह है कि जैसे दो व्यक्ति समतल भूमि पर खड़े होकर इधर-उधर देखें तो उनमें से एक अपने नेत्रों की निर्मलता के कारण भले अधिक देखे किन्तु कुछ ही अधिक क्षेत्र को जान-देख सकता है, बहुत अधिक दूर तक नहीं। इसी प्रकार कोई कृष्णलेश्यी नारक अपनी योग्यतानुसार दूसरे नारक की अपेक्षा अतिविशुद्ध हो तो भी वह कुछ ही अधिक क्षेत्र को जान-देख पाता है, बहुत अधिक क्षेत्र को नहीं ।
नीललेश्या और कापोतलेश्या वाले का उत्तरोत्तर स्फुट ज्ञान-दर्शन - (१) जैसे कोई व्यक्ति समतल भूभाग से पर्वतारूढ़ होकर चारों ओर देखे तो वह भूतल पर खड़े हुए पुरुष की अपेक्षा क्षेत्र को दूर तक, अधिक स्पष्ट, विशुद्धतर जानता-देखता है, वैसे ही नीललेश्या वाला नारक भूमितल-स्थानीय कृष्णलेश्या वाले नारक की अपेक्षा अपने अवधिज्ञान से क्षेत्र को अतीव दूर तक निर्मलतर, विशुद्धतर जानता-देखता है। (२) जैसे कोई व्यक्ति समतल भूमि से पर्वतारूढ होकर और फिर वहाँ वृक्ष पर चढ़ कर, दोनों पैर ऊँचे करके देखे तो वह नीचे भूतल पर स्थित और पर्वत पर स्थित पुरुषों की अपेक्षा अधिक दूरतर क्षेत्र को अतीव स्फुट एवं विशुद्धतर देखता है, वैसे ही वृक्षस्थानीय कापोतलेश्या वाला, पर्वतस्थानीय नीललेश्यावान् एवं भूमितलस्थानीय कृष्णलेश्यावान् की अपेक्षा अवधिज्ञान से बहुत दूर तक के क्षेत्र को विशुद्धतर जानता-देखता है। कृष्णादिलेश्यायुक्त जीवों में ज्ञान की प्ररूपणा - १२१६. [१] कण्हलेस्से णं भंते ! जीवे कतिसु णाणेसु होज्जा ?
गोयमा ! दोसु वा तिसु वा चउसु वा णाणेसु हुजा, दोसु होमाणे आभिणिबोहिय-सुयणाणेसु होजा, तिसु होमाणे आभिणिबोहिय-सुयणाण-ओहिणाणेसु होजा, अहवा तिसु होमाणे आभिणिबोहिय-सुयणाण-मणपजवणाणेसु होजा, चउसु होमाणे आभिणिबोहियणाण-सुयणाणओहिणाण-मणपज्जवणाणेसु होज्जा ।
[१२१६-१ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाला जीव कितने ज्ञानों में होता है ? [१२१६-१ उ.] गौतम ! (वह) दो, तीन अथवा चार ज्ञानों में होता है। यदि दो (ज्ञानों) में हो तो
१. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३५६ २. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३५६