Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सत्तरहवाँ लेश्यापद : तृतीय उद्देशक]
[३१९ समभिलोएमाणे समभिलोएमाणे केवतियं खेत्तं जाणइ ? केवतियं खेत्तं पासइ ?
गोयमा ! बहुतरागं खेत्तं जाणइ बहुतरागं खेत्तं पासइ जाव विसुद्धतरागं खेत्तं पासइ ? से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ काउलेसे णं णेरइए जाव विसुद्धतरागं खेत्तं पासइ ?
गोयमा ! से जहाणामए केइ पुरिसे बहुसमरमणिजओ भूमिभागाओ पव्वतं दुरूहति, दरूहित्ता रूक्खं दुरूहति, दुरूहित्ता दो वि पादे उच्चाविय सव्वओ समंता समभिलोएज्जा, तए णं से पुरिसे पव्वतगयं धरणितलगयं च पुरिसं पणिहाय सव्वओ समंता समभिलोएमाणे समभिलोएमाणे बहुतरागं खेत्तं जाणइ बहुतरागं खेत्तं पासइ जाव वितिमिरतरागं (विसुद्धतरागं) खेत्तं पासइ ।
सेएणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ काउलेस्से णं णेरइए णीललेस्सं णेरइयं पणिहाय तं चेव जाव वितमिरतरागं (विसुद्धतरागं) खेत्तं पासइ।
[१२१५-३ प्र.] भगवन् ! कापोतलेश्या वाला नारक नीललेश्या वाले नारक की अपेक्षा अवधि (ज्ञान) से सभी दिशाओं-विदिशाओं में (सब ओर) देखता-देखता कितने क्षेत्र को जानता है कितने (अधिक) क्षेत्र को देखता है ?
[१२१५-३ उ.] गौतम ! (वह कापोतलेश्यी नारक नीललेश्यी नारक की अपेक्षा) बहुतर क्षेत्र को जानता है, बहुतर क्षेत्र को देखता है, दूरतर क्षेत्र को जानता है, दूरतर क्षेत्र को देखता है तथा यावत् क्षेत्र को विशुद्धतर (रूप से) जानता-देखता है।
[प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि कापोतलेश्याी नारक,.........यावत् विशुद्धतर क्षेत्र को जानता-देखता है ?
[उ.] गौतम ! जैसे कोई पुरुष अत्यन्त सम एवं रमणीय भूभाग से पर्वत पर चढ़ जाए, फिर पर्वत से वृक्ष पर चढ़ जाए, तदनन्तर वृक्ष पर दोनों पैरों को ऊँचा करके चारों दिशाओं-विदिशाओं में (सब ओर) जाने-देखे तो वह बहुत क्षेत्र को जानता है, बहुतर क्षेत्र को देखता है यावत् उस क्षेत्र को निर्मलतर (विशुद्धतर रूप से) जानता-देखता है। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कापोतलेश्या वाला नैरयिक नीललेश्या वाले नारक की अपेक्षा........यावत् (अधिक) क्षेत्र को वितिमिरतर (निर्मलतर एवं विशुद्धतर रूप से) जानता और देखता है ।
विवेचन - कृष्णादिलेश्या वाले नैरयिकों में अविधिज्ञान-दर्शन से जानने-देखने का तारतम्यप्रस्तुत सूत्र (१२१५-१, २, ३) में कृष्णादिलेश्या विशिष्ट नारकों के द्वारा अवधिज्ञान-दर्शन से जानने-देशने के तारतम्य का निरूपण किया गया है।
कृष्णलेश्यी दो नारकों में अवधिज्ञान से जानने-देखने में अधिक अन्तर नहीं - कृष्णलेश्यी एक नारक दूसरे कृष्णलेश्यी नारक से बहुत अधिक क्षेत्र को नहीं जानता-देखता, थोड़े-से ही अधिक क्षेत्र को जानता-देखता है। इस कथन का तात्पर्य यह है कि एक कृष्णलेश्यी दूसरे कृष्णलेश्यी नारक से योग्यता में