Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सत्तरहवाँ लेश्यापद : तृतीय उद्देशक]
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प्रत्येक दण्डक के जीव की एक-एक लेश्या को लेकर उत्पाद और उद्वर्त्तनसम्बन्धी प्ररूपणा पूर्वसूत्रों (१२०१ से १२०७ तक) में की जा चुकी है, तथापि विभिन्न लेश्या वाले बहुत-से नारकों के उस उस गति में उत्पन्न होने की स्थिति में अन्यथा वस्तुस्थिति की संभावना की जा सकती है, क्योंकि एक-एक में रहने वाले धर्म की अपेक्षा समुदाय का धर्म कहीं अन्य प्रकार का भी देखा जाता है। इसी आशंका के निवारणार्थ जिनमें जितनी लेश्याएँ सम्भव हैं, उनकी उतनी सब लेश्याओं को एक साथ लेकर पूर्वोक्त विषय सामूहिकरूप से पुनः सूत्रबद्ध किया गया है।
कृष्णादिलेश्या वाले नैरयिकों में अवधिज्ञान-दर्शन से जानने-देखने का तारतम्य
१२१५. [ १ ] कण्हलेस्से णं भंते ! णेरइए कण्हलेस्से णेरइयं पणिहाए ओहिणा सव्वओ समंता समभिलोएमाणे समभिलोएमाणे केवतियं खेत्तं जाणइ ? केवतियं खेत्तं पासइ ?
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गोयमा ! णो बहुयं खित्तं जाणइ णो बहुयं खेत्तं पासइ, णो दूरं खेत्तं जाणइ णो दूरं खेत्तं पासति, इत्तरियमेव खेत्तं जाणइ इत्तरियमेव खेत्तं पासइ ।
णणं भंते! एवं वुच्चइ कण्हलेसे णं णेरइए तं चेव जाव इत्तरियमेव खेत्तं पासइ ?
गोयमा ! से जहाणामए केइ पुरिसे बहुसमरमणिज्जंसि भूमिभागंसि ठिच्चा सव्वओ समंता समभिलोएज्जा, तए णं से पुरिसे धरणितलगतं पुरिसं पणिहाए सव्वओ समंता समभिलोएमाणे समभिलोएमाणे णो बहुयं खेत्तं जाव पासइ जाव इत्तरियमेव खेत्तं पासइ ।
एएणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ कण्हलेसे णं णेरइए जाव इत्तरियमेव खेत्तं पासइ ।
[१२१५-१ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाला नैरयिक कृष्णलेश्या वाले दूसरे नैरयिक की अपेक्षा अवधि (ज्ञान) के द्वारा सभी दिशाओं और विदिशाओं में (सब ओर) समवलोकन करता हुआ कितने क्षेत्र को जानता है और ( अवधिदर्शन से) कितने क्षेत्र को देखता है ?
[१२१५ - १ उ.] गौतम ! ( एक कृष्णलेश्यी नारक दूसरे कृष्णालेश्यावान् नारक की अपेक्षा) न तो बहुत अधिक क्षेत्र को जानता है और न बहुत क्षेत्र को देखता है, (वह) न बहुत दूरवर्ती क्षेत्र को जानता है और न बहुत दूरवर्ती क्षेत्र को देख पाता है, (वह) थोड़े से अधिक क्षेत्र को जानता है और थोड़े से ही अधिक क्षेत्र को देख पाता है।
[प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि कृष्णलेश्या युक्त नारक न बहुत क्षेत्र को जानता . (इत्यादि) यावत् थोड़े से ही क्षेत्र को देख पाता है ?
[उ.] गौतम ! जैसे कोई पुरुष अत्यन्त सम एवं रमणीय भू-भाग पर स्थित होकर चारों और (सभी दिशाओं और विदिशाओं में) देखे, तो वह पुरुष भूतल पर स्थिति (किसी दूसरे) पुरुष की अपेक्षा से सभी
१. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३५५