Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रज्ञापनासूत्र
[१२३५ उ.] गौतम ! जैसे कोई आमों का, आम्राटक के फलों का, बिजौरों का, बिल्वफलों (बेल के फलों) का, कवीटों का, भट्ठों का, पनसों (कटहलों) का, दाडिमों (अनारों) का, पारावत नामक फलों का, अखरोटों का, प्रौढ़- बड़े बेरों का, बेरों का तिन्दुकों के फलों का, जो कि अपक्व हों, पूरे पके हुए न हों, वर्ण से रहित हों, गन्ध से रहित हों और स्पर्श से रहित हों; (इनके आस्वाद- रस के समान कापोतलेश्या का रस (स्वाद) कहा गया है।)
[प्र.] भगवन् ! क्या कापोतलेश्या रस से इसी प्रकार की होती है ?
[उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। कापोतलेश्या स्वाद में इनमे भी अनिष्टतर यावत् अत्यधिक अमनाम कही है।
१२३६. तेउलेस्सा णं पुच्छा ?
गोयमा! से जहाणामए अंबाण वा जाव तेंदुयाण वा पक्काणं परियावण्णाणं वण्णेणं उववेताणं पसत्थेणं जाव फासेणं जाव एत्तो मणामतरिया चेव तेउलेस्सा अस्साएणं पण्णत्ता।
[१२३६ प्र.] भगवन् ! तेजोलेश्या आस्वाद में कैसी है ?
[१२३६ उ.] गौतम ! जैसे किन्हीं आम्रों के यावत् (आम्राटकों से लेकर) तिन्दुकों तक के फल जो कि परिपक्व हों, पूर्ण परिपक्व अवस्था को प्राप्त हों, परिपक्व अवस्था के प्रशस्त वर्ण से, गन्ध से और स्पर्श से युक्त हों, (इनका जैसा स्वाद होता है, वैसा ही तेजोलेश्या का है।)
[प्र.] भगवन् ! क्या तेजोलेश्या इस आस्वाद की होती है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। तेजोलेश्या स्वाद में इनसे भी इष्टतर यावत् अधिक मनाम होती
१२३७. पम्हलेस्साए पुच्छा?
गोयमा ! से जहाणामए चंदप्पभा इ वा मणिसिलागा इ वा वरसीधू इ वा वरवारुणी ति वा पत्तासवे इ वा पुण्फासवे इ वा फसासवे इ वा चोयासवे इ वा आसवे इ वा मधू इ वा मेरए इ वा कविसाणए इ वा खज्जूरसारए इ वा मुद्दियासारए इ वा सपक्कखोयरसे इ वा अट्ठपिटुणिट्ठिया इ वा जंबूफलकालिया इवा वरसपण्णा इवा आसला मासला पेसला ईसी ओढावलंबिणी ईसिंवोच्छेयकडुई ईसी तंबच्छिकरणी उक्कोसमयपत्ता वण्णेणं जाव फासेणं आसायणिज्जा वीसायणिज्जा पीणणिज्जा विंहणिज्जा दीवणिज्जा दप्पणिज्जा मयणिज्जा सव्विंदिय-गायपल्हायणिज्जा ।
भवेतारूवा?
गोयमा ! णो इणटे समढे, पम्हलेस्सा णं एत्तो इद्रुतरिया चेव जाव मणामतरिया चेव अस्साएणं पण्णत्ता?