Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रज्ञापनासूत्र
पदों वाला एक भंग होता है, क्योंकि उक्त १३ पदों वाले जीव सदैव बहुत रूप में रहते हैं।'
आठ भंगों का क्रम - प्रथमभंग- जब पूर्वोक्त तेरह पदों के साथ एक आहारकशरीरकायप्रयोगी पाया जाता है, तब एक भंग होता हैं। द्वितीयभंग- पूर्वोक्त तेरह पद वालों के साथ बहुत-से आहारकशरीरकायप्रयोगी पाए जाते हैं, तब दूसरा भंग होता हैं। तृतीय-चतुर्थ भंग- इसी प्रकार पूर्वोक्त १३ पदों के साथ जब एक जीव आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होता है, अथवा बहुत जीव आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होते है, तब तीसरा और चौथा भंग होता है। यों क्रमश: ये ४ भंग हुए । पंचम से अष्टम भंग तक- चार भंग द्विकसंयोगी होते हैं, जो पहले बताए जा चुके हैं। पूर्वोक्त तेरह पदों वाले भंग को मिलाने से ये सब ९ भंग होते हैं। नारकों और भवनपतियों की विभाग से प्रयोगप्ररूपणा
१०७८. णेरइया णं भंते ! किं सच्चमणप्पओगी जाव किं कम्मासरीरकायप्पओगी?
गोयमा! णेरइया सव्वे विताव होज्जा सच्चमणप्पओगी विजाव वेउव्वियमीससरीरकायप्पओगी वि, अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य २ ।
[१०७८ प्र.] भगवन् ! नैरयिक सत्यमनःप्रयोगी होते हैं, अथवा यावत् कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं?
[१०७८ उ.] गौतम ! नैरयिक सभी सत्यमनःप्रयोगी भी होते हैं, यावत् वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगी भी होते हैं; १- अथवा कोई एक (नैरयिक) कार्मणशरीरकायप्रयोगी होता है, २- अथवा कोई अनेक (नैरयिक) कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं।
१०७९. एवं असुरकुमारा वि जाव थणियकुमारा वि । [१०७९] इसी प्रकार असुरकुमारों की भी यावत् स्तनितकुमारों की प्रयोगप्ररूपणा करनी चाहिए।
विवेचन - नारकों और भवनपतियों की विभाग से प्रयोगप्ररूपणा- प्रस्तुत दो सूत्रों में एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से नारकों और भवनपतिदेवों की प्रयोग-सम्बन्धी तीन भंगो की प्ररूपणा की गई हैं।
नारकों में सदैव पाए जाने वाले बहुत्वविशिष्ट दस पद - नारकों में सत्यमन:प्रयोगी से लेकर वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगी पर्यन्त सदैव बहुत्वविशिष्ट दस पद पाए जाते हैं, किन्तु कार्मणशरीरकायप्रोगी
आहारगाई लोए छम्मासे जा न होंति वि कयाई । उक्कोसेणं नियमा, एक समयं जहन्नेणं ॥१॥ होंताई जहन्नेणं इक्कं दो तिण्णि पंच व हवंति ।
उक्कोसेणं जुगवं पुहुत्तमेत्तं सहस्साणं ॥२॥ २. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३२३-३२४ ३. भगवतीसूत्र श.८ उ.१ में देवों और नारकों में अपर्याप्त दशा में ही वैक्रियमिश्रशरीरप्रयोग माना गया है ।