Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सत्तरहवाँ लेश्यापद : प्रथम उद्देशक
[२८५ भेद न करके मायि-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायि-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक, ये दो भेद कहने चाहिए, क्योंकि असंज्ञी जीवों की तेजोलेश्यावालों में उत्पत्ति असंभव है।
तेजोलेश्याविशिष्ट मनुष्यों का क्रियासूत्र - क्रियाओं की अपेक्षा से संयत मनुष्य दो प्रकार के कहने चाहिए - प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत । इन दोनों में तेजोलेश्या सम्भव है। सरागसंयत और वीतरागसंयत ये भेद तेजोलेश्याविशिष्ट मनुष्यों में नहीं करने चाहिए, क्योंकि वीतरागसंयतों में तेजोलेश्या सम्भव नहीं है। वह सरागसंयतों में पाई जाती है।
तेजोलेश्यायुक्त वाणव्यन्तरों का कथन - इनका कथन असुरकुमारों के समान समझना चाहिए। ऐसी स्थिति में तेजोलेश्याविशिष्ट वाणव्यन्तरों के संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत, यों दो भेद न करके मायिमिथ्यादृष्टि-उपपन्नक, और अमायि-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक, ये दो भेद कहने चाहिए, क्योंकि तेजोलेश्यावाले वाणव्यन्तरों में असंज्ञीजीवों का उत्पाद नहीं होता ।
__ पालेश्या-शुक्ललेश्या-विशिष्ट जीवों के आहारादिसूत्र - इन दोनों लेश्याओं वाले जीवों के आहारादिसूत्र तेजोलेश्या के समान समझने चाहिए। विशेषताः यह है कि जिन जीवों में ये दो लेश्याएँ पाई जाती हों, उन्हीं के विषय में ये सूत्र कहने चाहिए, अन्य जीवों के विषय में नहीं। ये दोनों लेश्याएँ पंचेन्द्रियतिर्यचों, मनुष्यों और वैमानिक देवों में ही पाई जाती हैं, शेष जीवों में नहीं ।
॥ सत्तरहवाँ लेश्यापद : प्रथम उद्देशक समाप्त ॥
१. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक ३४३ २. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक ३४३