Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सत्तरहवाँ लेश्यापद : प्रथम उद्देशक]
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[११५२] (तेजोलेश्या वाले) पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, वनस्पतिकायिक, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों का कथन उसी प्रकार करना चाहिए, जिस प्रकार (सू. ११३७ से ११३९ तक और ११४१-११४२) औधिक सूत्रों में किया गया है। विशेषता यह है कि क्रियाओं की अपेक्षा से तेजोलेश्या वाले मनुष्यों के विषय में कहना चाहिए कि जो संयत हैं, वे प्रमत्त और अप्रमत्त दो प्रकार के हैं तथा सरागसंयत ओर वीतरागसंयत, (ये दो भेद तेजोलेश्या वाले मनुष्यों में) नहीं होते ।
११५३. वाणमंतरा तेउलेस्साए जहा असुरकुमारा (सु. ११५१)।
[११५३] तेजोलेश्या की अपेक्षा से वाणव्यन्तरों का कथन (सू. ११५१ में उक्त) असुरकुमारों के समान समझना चाहिए ।
११५४. एवं जोतिसिय-वेमाणिया वि। सेसं तं चेव । __[११५४] इसी प्रकार तेजोलेश्याविशिष्ट ज्योतिष्क और वैमानिकों के विषय में भी पूर्ववत् कहना चाहिए। शेष आहारादि पदों के विषय में पूर्वोक्त असुरकुमारों के समान ही समझना चाहिए।
११५५. एवं पम्हलेस्सा विभाणियव्वा, णवरं जेसिं अस्थि । सुक्कलेस्सा वि तहेव जेसिं अत्थि । सव्वं तहेव जहा ओहियाणं गमओ । णवरं पम्हलेस्स-सुक्कलेस्साओ पंचेंदियतिरिक्खजोणियमणूसवेमाणियाणं चेव, ण सेसाणं ति ।
. पण्णवणाए लेस्सापए पढमो उद्देसओ समत्तो ॥
[११५५] इसी (तेजोलेश्या वालों की) तरह पद्मलेश्या वालों के लिये भी (आहारादि के विषय में) कहना चाहिए। विशेष यह है कि जिन जीवों में पद्मलेश्या होती है, उन्हीं मे उसका कथन करना चाहिए। शुक्ललेश्या वालों का आहारादिविषयक कथन भी इसी प्रकार है, किन्तु उन्हीं जीवों में कहना चाहिए, जिनमें वह होती है तथा जिस प्रकार (विशेषणरहित) औघिकों का गम (पाठ) कहा है, उसी प्रकार (पद्मशुक्ललेश्याविशिष्ट जीवों का आहारादिविषयक) सब कथन करना चाहिए। इतना विशेष है कि पद्मलेश्या और शुक्कललेश्या पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों, मनुष्यों और वैमानिकों में ही होती है, शेष जीवों में नहीं ।
विवेचन - कृष्णादिलेश्याविशिष्ट चौवीस दण्डकों में समाहारादि सप्तद्धार-प्ररूपणा - प्रस्तुत दस सूत्रों (सू. ११४६ से ११५५ तक) में कृष्णादिलेश्याओं से युक्त नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के समाहार आदि सप्तद्वारों के विषय में प्ररूपणा की गई हैं।
कृष्णलेश्याविशिष्टनैरयिकों के नौ पदों के विषय में - जैसे विशेषण रहित सामान्य (औधिक) नारकों का आहार, शरीर, उच्छ्वास-निःश्वास, कर्म, वर्ण, लेश्या, वेदना, क्रिया और उपपात (अथवा आयुष्य), इन नौ द्वारों की अपेक्षा से कथन पहले किया गया है, वैसे ही कृष्णलेश्याविशिष्ट नैरयिकों के विषय में कथन करना चाहिए। किन्तु सामान्य नारकों से कृष्णलेश्याविशिष्ट नारकों में वेदना के विषय में कुछ विशेषता है, वह इस प्रकार - वेदना की अपेक्षा नैरयिक दो प्रकार के हैं- मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायी-सम्यग्दृष्टि