Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सत्तरहवाँ लेश्यापद : प्रथम उद्देशक]
[२८१
सलेश्य चौवीसदण्डकवर्ती जीवों की आहारारि सप्तद्वार-प्ररूपणा
११४५. सलेस्सा णं भंते ! णेरइया सव्वे समाहारा समसरीरा समुस्सासणिस्सासा ? सच्चेव पुच्छा।
एवं जहा ओहिओ गमओ (सु. ११२४-४४) भणिओ तहा सलेस्सगमओ वि णिरवसेसो भाणियव्वो जाव वेमाणिया ।
[११४५ प्र.] भगवन् ! सलेश्य (लेश्या वाले) सभी नारक समान आहार वाले, समान शरीर वाले और समान उच्छ्वास-निःश्वास वाले हैं ? (इसी प्रकार आगे के द्वारों के विषय में भी) वही (पूर्ववत्) पृच्छा है, (इसका क्या समाधान ?)
[११४५ उ.] (गौतम !) इस प्रकार जैसे सामान्य (समुच्चय नारकों का- औधिक) गम (सू. ११२४ से ११४४ तक में) कहा है, उसी प्रकार सभी सलेश्य (नारकों के सप्तद्वारों के विषय का) समस्त गम यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए ।
. विवेचन - सलेश्य चौवीसदण्डकवर्ती जीवों की आहारादि सप्तद्वार-प्ररूपणा - प्रस्तुत सूत्र (११४५) में लेश्यावाले नारकों से लेकर वैमानिकों तक समाहारादि सात द्वारों के विषय में प्ररूपणा की गई है। कृष्णादिलेश्याविशिष्ट चौवीस दण्डकों में समाहारादि सप्तद्वार-प्ररूपणा
११४६. कण्हलेस्सा णं भंते ! णेरइया सव्वे समाहारा समसरीरा समुस्सासणिस्सासा पुच्छा ?
गोयमा ! जहा ओहिया (सु. ११२४-३०)।णवरं णेरइया वेदणाए माइमिच्छद्दिट्ठिउववण्णगा य अमाइसम्मद्दिट्ठिउववण्णगा य भाणियव्वा । सेसं तहेव जहा ओहियाणं ।
[११४६ प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या वाले सभी नैरयिक समान आहार वाले, समान शरीर वाले और समान उच्छ्वास-निःश्वास वाले होते हैं । इत्यादि प्रश्न है।
[११४६ उ.] गौतम ! जैसे (सू. ११२४ से ११३० तक में) सामान्य (औधिक) नारकों का आहारादिविषयक कथन किया गया है, उसी प्रकार कृष्णलेश्या वाले नारकों का कथन भी समझ लेना चाहिए। विशेषता इतनी है कि वेदना की अपेक्षा नैरयिक मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक, (ये दो प्रकार के) कहने चाहिए । शेष (कर्म, वर्ण, लेश्या, क्रिया और आयुष्य आदि के विषय में) समुच्चय नारकों के विषय में जैसा कहा है, उसी प्रकार (यहाँ भी समझ लेना चाहिए।)
११४७. असुरकुमारा जाव वाणमंतरा एते जहा- ओहिया (सु. ११३१-४३)।णवरं मणूसाणं किरियाहिं विसेसो, जाव तत्थ णं जे ते सम्मद्दिट्टी ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा- संजया असंजया संजयासंजया य, जहा ओहियाणं (सु. ११४२)।
[११४७] (कृष्णलेश्यायुक्त) असुरकुमारों से (लेकर नागकुमार आदि भवनपति, पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय, मनुष्य और) यावत् वाणव्यन्तर के आहारादि सप्त द्वारों के विषय में