Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रज्ञापनासूत्र [११४३] जैसे असुरकुमारों की (आहारादि की वक्तव्यता सू. ११३१ से ११३५ तक में कही है,) उसी प्रकार वाणव्यन्तर देवों की (आहारादि संबंधी वक्तव्यता कहनी चाहिए ।)
११४४. एवं जोइसिय-वेमाणियाण वि। णवरं ते वेदणाए दुविहा पण्णत्ता, तं जहामाइमिच्छद्दिट्टीउववण्णगाय अमाइसम्मद्दिट्टीउववण्णगा य । तत्थ णं जे ते माइमिच्छद्दिट्टीउववण्णगा ते णं अप्पवेदणतरागा । तत्थ णं जे ते अमाइसम्मद्दिट्ठीउववण्णगा ते णं महावेदणतरागा, से एणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ. । सेसं तहेव ।
[११४४] इसी प्रकार ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के आहारादि के विषय में भी कहना चाहिए। विशेष यह है कि वेदना की अपेक्षा वे दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार- मायीमिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक । उनमें जो मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक हैं, वे अल्पतर वेदना वाले हैं और जो अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक हैं, वे महावेदना वाले हैं। इसी कारण हे गौतम ! सब वैमानिक समान वेदना वाले नहीं हैं। शेषज्ञ (आहार, वर्ण, कर्म आदि संबंधी सब कथन) पूर्ववत् (असुरकुमारों और वाणव्यन्तरों के समान) समझ लेना चाहिए।
विवेचन - वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों की आहारादिविषयक प्ररूपणा - प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. ११४३-११४४) में वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की आहारादिविषयक वक्तव्यता असुकुमारों के अतिदेशपूर्वक कही गई है। ___ वाणव्यन्तरों की समाहारादि वक्तव्यता - असुरकुमार दो प्रकार के होते हैं- संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत। जो संज्ञीभूत होते हैं, वे महावेदना वाले और जो असंज्ञीभूत होते हैं, वे अल्पवेदना वाले; इत्यादि कथन किया गया है, उसी प्रकार वाणव्यन्तरों के विषय में भी जानना चाहिए। व्याख्याप्रज्ञप्ति में कहा है- 'असंज्ञी जीवों की उत्पत्ति देवगति में हो तो जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट वाणव्यन्तरों में होती है। अतः असुरकुमारों में असंज्ञी जीवों की उत्पत्ति होती हैं, इस प्रकार जो युक्ति असुरकुमारों के विषय में कही है, वही यहाँ भी जान लेनी चाहिए। ___ असुरकुमारों से ज्योतिष्क, वैमानिकों की वेदना में अन्तर - जैसे असुरकुमारों में कोई असंज्ञीभूत और कोई संज्ञीभूत कहे हैं, वैसे ही ज्योतिष्कों और वैमानिकों में उनके स्थान में मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक कहना चाहिए, क्योंकि ज्योतिष्कनिकाय और वैमानिकनिकाय में असंज्ञी जीव उत्पन्न नहीं होते। इसमें युक्ति यह है कि असंज्ञियों की आयु की उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग की होती है, जबकि ज्योतिष्कों की जघन्यस्थिति भी पल्योपम के असंख्येयभाग की होती है, और वैमानिकों की एक पल्योपम की है। अतएव यह निश्चित है कि उनमें असंज्ञियों का उत्पन्न होना संभव नहीं है।
-व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक १, उद्देशक २
१. 'असन्नीसणं जहन्नेणं भवणवासीसु, उक्कोसेणं वाणमंतरेसु ।' २. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३४१