Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सत्तरहवाँ लेश्यापद : प्रथम उद्देशक]
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३. मायाप्रत्यया, ४. अप्रत्याख्यानक्रिया और ५. मिथ्यादर्शनप्रत्यया। शेष (आयुष्य का) कथन (उसी प्रकार समझ लेना चाहिए,) जैसा नारकों का (किया गया है ।) ___ विवेचन - मनुष्यों में समाहारादि सप्त द्वारों की प्ररूपणा - प्रस्तुत सूत्र (११४२) में मनुष्य में आहारादि सप्त द्वारों की प्ररूपणा की गई हैं ।
महाशरीर मनुष्यों में आहार एवं उच्छ्वास-निःश्वास-विषयक विशेषता - सामान्यतया महाशरीर मनुष्य बहुतर पुद्गलों का आहार परिणमन तथा उच्छ्वासरूप में ग्रहण और निःश्वासरूप में त्याग करते हैं; किन्तु देवकुरु आदि यौगलिक महाशरीर मनुष्य कवलाहार के रूप में कदाचित् ही आहार करते हैं। उनका आहार अष्टमभक्त से होता है, अर्थात्- वे बीच में तीन-तीन दिन छोड़ कर आहार करते हैं । वे कभी-कभी ही उच्छ्वास और निःश्वास लेते हैं, क्योंकि वे शेष मनुष्यों की अपेक्षा अत्यन्त सुखी होते हैं, इस कारण उनका उच्छ्वास-निश्वास कादाचित्क (कभी-कभी) होता है ।
अल्पशरीर मनुष्यों के बार-बार आहार एवं उच्छ्वास का कारण - अल्पशरीर वाले मनुष्य बारबार अल्प आहार करते रहते हैं, क्योंकि छोटे बच्चे अल्पशरीर वाले होते हैं, वे बार-बार थोड़ा-थोड़ा आहार करते देखे जाते हैं तथा अल्पशरीर वाले सम्मर्छिम मनुष्यों में सतत आहार सम्भव है; अल्पशरीर वालों में उच्छ्वास-निःश्वास भी बार-बार देखा जाता है, क्योंकि उनमें प्रायः दुःख की बहुलता होती है।
पूर्वोत्पन्न मनुष्यों में शुद्ध वर्णादि - जो मनुष्य पूर्वोत्पन्न होते हैं, उनमें तारूण्य के कारण शुद्ध वर्ण आदि होते हैं ।
सरागसंयत एवं वीतरागसंयत का स्वरूप - जिनके कषायों का उपशम या क्षय नहीं हुआ है, किन्तु जो संयमी हैं, वे सरागसंयमी कहलाते हैं, किन्तु जिनके कषायों का सर्वथा उपशम या क्षय हो चुका है, वे वीतरागसंयमी कहलाते हैं। वीतरागसंयमी में वीतरागत्व के कारण आरम्भादि कोई क्रिया नहीं होती। सरागसंयतों में जों अप्रमत्त संयमी होते हैं, उनमें एकमात्र मायाप्रत्यया और उसमें भी केवल संज्वलनमायप्रत्यया क्रिया होती है, क्योंकि वे कदाचित् प्रवचन (धर्मसंघ) की बदनामी को दूर करने एवं शासन की रक्षा करने में प्रवृत्त होते हैं। उनका कषाय सर्वथा क्षीण नहीं हुआ है। किन्तु जो प्रमत्तसंयत होते हैं, वे प्रमादयोग के कारण आरम्भ में प्रवृत्त होते हैं। इसलिए उनमें आरम्भिकी क्रिया सम्भव है तथा क्षीणकषाय न होने के कारण उनमें मायाप्रत्यया क्रिया भी समझ लेनी चाहिए। शेष सब वर्णन स्पष्ट है। वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिकों की आहारादि विषयक प्ररूपणा
११४३. वाणमंतराणं जहा असुरकुमाराणं (सु. ११३१-३५)।
१. 'अट्ठमभत्तस्स आहारो' इति वचनात् । २. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक ३४०-३४१