Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सत्तरहवाँ लेश्यापद : द्वितीय उद्देशक
[३०३ नरकपृथ्वी में मिश्र (कापोत और नील), चौथी में नील, पांचवी में मिश्र (नील और कृष्ण), छठी में कृष्ण और सातवीं पृथ्वी में महाकृष्ण लेश्या होती है। यही कारण है कि नारकों में कृष्ण, नील और कापोत, इन तीन लेश्या वालों के अल्पबहुत्व का विचार किया गया है ।
सबसे कम कृष्णलेश्या वाले नारक इस कारण बताए गए हैं कि कृष्णलेश्या पांचवी पृथ्वी के कतिपय नारकों तथा छठी और सातवीं पृथ्वी के नारकों में ही पाई जाती है। कृष्णलेश्या वाले नारक की अपेक्षा नीललेश्या वाले नारक असंख्यातगुणे इसलिए होते हैं कि नीललेश्या कतिपय तृतीय पृथ्वी के, चौथी पृथ्वी के
और कतिपय पंचम पृथ्वी के नारकों में पाई जाती है और पूर्वोक्त नारकों से असंख्यातगुणे अधिक हैं। नीललेश्यी नारकों की अपेक्षा कापोतलेश्या वाले नारक इसलिए असंख्यातगुणे अधिक हैं कि कापोतलेश्या प्रथम एवं द्वितीय पृथ्वी के तथा तृतीय पृथ्वी के कतिपय नरकावासों में पाई जाती हैं और वे नारक पूर्वोक्त नारकों से असंख्यातगुणे अधिक हैं ।
तिर्यचों के अल्पबहुत्व में समुच्चय से विशेषता - समुच्चय सलेश्य जीवों की अल्पबहुत्व की तरह तिर्यचों के अल्पबहुत्व का निर्देश किया गया है, परन्तु समुच्चय से एक विशेषता यह है कि समुच्चय में अलेश्य का भी अल्पबहुत्व कहा गया है, जिसे तिर्यचों मे नहीं कहना चाहिए, क्योंकि तिर्यञ्चों के अलेश्य होना संभव नहीं हैं ।
एकेन्द्रियों के अल्पबहुत्व की समीक्षा - एकेन्द्रियों में ४ लेश्याएँ ही पाई जाती हैं - कृष्ण, नील, कापोत और तेजस्। अत: यहाँ इन्ही चारों लेश्याओं से विशिष्ट एकेन्द्रियों का ही अल्पबहुत्व प्रदर्शित किया गया है। सबसे कम एकेन्द्रिय तेजोलेश्या वाले इसलिए हैं कि तेजोलेश्या कतिपय बादर पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवों के अपर्याप्त अवस्था में ही पाई जाती है। तेजोलेश्याविशिष्ट एकेन्द्रियों की अपेक्षा कापोतलेश्या वाले अनन्तगुणे अधिक हैं, क्योंकि कापोतलेश्या अनन्त सूक्ष्म एवं बादर निगोद जीवों में पाई जाती है। कापोतलेश्या वालों से नीललेश्या वाले और इनसे कृष्णलेश्या वाले एकेन्द्रिय पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार विशेषाधिक कहे गए हैं। पृथ्वी-जल-वनस्पतिकायिकों में चार लेश्याएँ होने के कारण इनका अल्पबहुत्व समुच्चय एकेन्द्रिय के समान है और तेजस्काय, वायुकाय में कृष्ण, नील, कापोत तीन ही लेश्याएँ हैं। अत: तेजोलेश्या की छोड़कर शेष तीन लेश्याओं वाले विशेषाधिक क्रमशः नीललेश्यी और कृष्णलेश्यी हैं । यही अल्पबहुत्व विकलेन्द्रियाँ में निर्दिष्ट हैं।'
१. (क) 'काउय दोसु, तइयाए मीसिया, नीलिया चउत्थीए ।
पंचमियाए मिस्सा, कण्हा तत्तो परमकण्हा ॥ (ख) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३४६ २. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३४७ ३. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३४७