Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रज्ञापनासूत्र
प्रकार तीनों (कृष्ण, नील एवं कापोत) लेश्याओं में जानना चाहिए ।
१२०५. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा य जहा पुढविक्काइया आदिल्लियासु तिसु लेस्सासु भणिया (सु. १२०३ [१-२]) तहा छसुविलेसासु भाणियव्वा ।णवरं छप्पि लेसाओ चारियव्वाओ।
[१२०५] पंचेन्द्रियतिर्यचयोनिकों और मनुष्यों का (उत्पाद उद्वर्तन सम्बन्धी) कथन भी छहों लेश्याओं में उसी प्रकार है, जिस प्रकार (सू. १२०३-१-२ में) पृथ्वीकायिकों का (उत्पाद-उद्वर्तन-सम्बन्धी कथन) प्रारम्भ की तीन लेश्याओं (के विषय) में कहा है। विशेषता यही है कि (पूर्वोक्त तीन लेश्या के बदले यहाँ) छहों लेश्याओं का कथन (अभिलाप) कहना चाहिए ।
१२०६. वाणमंतरा जहा असुरकुमारा (सु. १२०२ ।)
[१२०६] वाणव्यन्तर देवों की (उत्पाद-उद्वर्तन-सम्बन्धी वक्तव्यता सू. १२०२ में उक्त) असुरकुमारों (की वक्तव्यता) के समान (जाननी चाहिए ।)
१२०७.[१]से णूणं भंते ! तेउलेसे जोइसिए तेउलेसेसुजोइसिएसु उवज्जति? जहेव असुरकुमारा।
[१२०७-१ प्र.] भगवन् ! क्या तेजोलेश्या वाला ज्योतिष्क देव तेजोलेश्या वाले ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होता है ? (क्या वह तेजोलेश्यायुक्त होकर ही च्यवन करता है ?)
[१२०७-१ उ.] जैसा असुरकुमारों के विषय में कहा गया है, वैसा ही कथन ज्योतिष्कों के विषय में समझना चाहिए।
[२] एवं वेमाणिया वि । नवरं दाण्ह वि चयंतीति अभिलावो । _ [१२०७-२] इसी प्रकार वैमानिक देवों के उत्पाद और उद्वर्तन के विषय में भी कहना चाहिए। विशेषता यह है कि दोनों प्रकार के (ज्योतिष्क और वैमानिक) देवों के लिए ('उद्वर्तन करते हैं, इसके स्थान में) 'च्यवन करते है' ऐसा अभिलाप (कहना चाहिए ।) ।
विवेचन - लेश्यायुक्त चौवीसदण्डकवर्ती जीवों की उत्पाद-उद्वर्तन-प्ररूपणा - प्रस्तुत सात सूत्रों (१२०१ से १२०७ तक) में लेश्या की अपेक्षा से चौवीसदण्डकवर्ती जीवों की उत्पाद और उद्वर्त्तन की प्ररूपणा की गई है।
नारकों और देवों में उत्पाद और उद्वर्तन का नियम - जीव जिस लेश्यावाला होता है, वह उसी लेश्या वालों में उत्पन्न होता है तथा उसी लेश्या वाला होकर वहाँ से उद्वर्तन करता (मरता) है। उदाहरणार्थकृष्णलेश्या वाला नारक कृष्णलेश्या वाले नारकों में उत्पन्न होता है और जब उद्वर्त्तन करता है, तब कृष्णलेश्या वाला होकर ही उद्वर्त्तन करता है, अन्य लेश्या से युक्त होकर नहीं। इसका कारण यह है कि पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अथवा मनुष्य पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चायु अथवा मनुष्यायु का पूरी तरह से क्षय होने से अन्तर्मुहूर्त पहले उसी लेश्या से युक्त हो जाता है, जिस लेश्या वाले नारक में उत्पन्न होने वाला होता है। तत्पश्चातृ उसी अप्रतिपतित परिणाम से