Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रज्ञापनासूत्र
• तृतीय उद्देशक में कृष्णादिलेश्यायुक्त चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के उत्पाद और उद्वर्तन के सम्बन्ध में ___ एकत्व-बहुत्व एवं सामूहिक लेश्या की अपेक्षा से चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। इस पर से जन्मकाल
और मृत्युकाल मे कौन-सा जीव किस लेश्या वाला होता है, यह स्पष्ट फलित हो जाता है। तत्पश्चात् उस-उस लेश्या वाले जीवों के अवधिज्ञान की विषयमर्यादा तथा उस-उस लेश्या वाले जीव में कितने
और कौन-से ज्ञान होते हैं ? यह प्ररूपणा की गई है । ॐ चतुर्थ उद्देशक में बताया गया है कि एक लेश्या का, अन्य लेश्या के रूप में परिणमन किस प्रकार होता
है। छहों लेश्याओं के पृथक्-पृथक् वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की प्ररूपणा की गई है। तत्पश्चात् कृष्णादि लेश्याओं के कितने परिणाम, प्रदेश, प्रदेशावगाह, वर्गणा एवं स्थान होते हैं, इसकी प्ररूपणा की गई है। अन्त में कृष्णादि लेश्याओं के स्थान की जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम दृष्टि से द्रव्य, प्रदेश एवं द्रव्य-प्रदेश की अपेक्षा से अल्पबहुत्व की विस्तृत प्ररूपणा की गई है। __ पंचम उद्देशक के प्रारम्भ में तो चतुर्थ उद्देशक के परिणामाधिकार की पुनरावृत्ति की गई है; उसके पश्चात्
ऐसा निरूपण है कि उस-उस लेश्या का अन्य लेश्या के रूप में तथा उनके वर्णादि रूप में परिणमन नहीं होता। वृत्तिकार इस पूर्वापर विरोध का समाधान करते हुए कहते हैं कि चतुर्थ उद्देशक में एक लेश्या का अन्य लेश्या के रूप में परिणत होने का जो विधान है, वह तिर्यञ्चों और मनुष्यों की अपेक्षा से समझना चाहिए तथा पंचम उद्देशक में एक लेश्या का दूसरी लेश्या के रूप में परिणत होने का जो निषेध है, वह
देवों और नारकों की अपेक्षा से समझना चाहिए। . छठे उद्देशक में भरतादि विविध क्षेत्रों में रहने वाले मनुष्यों और मनुष्य-स्त्रियों की लेश्या सम्बन्धी चर्चा
की गई है। इसके बाद यह प्रतिपादन किया गया है कि जनक और जननी की जो लेश्या होती है, वही लेश्या जन्य की होनी चाहिए, ऐसा कोई नियम नहीं है। जनक और जन्य की या जननी और जन्य की लेश्याएँ सम भी हो सकती हैं, विषम भी।' प्रस्तुत लेश्यापद इतना विस्तृत एवं छह उद्देशकों में विभक्त होते हुए भी उत्तराध्ययन आदि आगम-ग्रन्थों में उस-उस लेश्यावाले जीवों के अध्यवसायों की तथा उनके लक्षण, स्थिति, गति एवं परिणति की जैसी विस्तृत चर्चा है तथा भगवतीसूत्र आदि में लेश्या के द्रव्य और भाव, इन दो भेदों का जो वर्णन मिलता है, वह इसमें नहीं है। कहीं-कहीं वर्णन में पुनरावृत्ति भी हुई है।
१. (क) पण्णवणासुत्तं भाग. २, प्रस्तावना, पृ. १०४ से १०७ तक (ख) पण्णवणासुत्तं भा. १, पृ. २७४ से ३०३ तक
(क) उत्तराध्ययन अ. ३४, गा. २१ से ६१ तक (ख) लेश्याकोषा (संपा. मोहनलाल बांठिया.) (ख) Doctrine of the Jainas (Sheudring) (ग) भगवतीसूत्र श. १२, उद्देशक ५, सू. ४५२ पत्र ४७२ (घ) षट्खण्डागम पु. १, पृ. १३२, ३२६; पु. ३ पु. ४५९; पु. ४ पृ. २९०