Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रज्ञापनासूत्र
[९६०-३] क्रोध की तरह मान की अपेक्षा से, माया की अपेक्षा से और लोभ की अपेक्षा से भी (प्रत्येक का) एक-एक दण्डक (आलापक कहना चाहिए ।) ।
विवेचन - क्रोधादि चारों कषायों के प्रतिष्ठान-आधार की प्ररूपणा -प्रस्तुत सूत्र (९६०१,२,३) में क्रोध, मान, माया, और लोभ इन चारों कषायों को चार-चार स्थानों पर प्रतिष्ठित-आधारित बताया गया है।
चतुष्प्रतिष्ठित क्रोधादि-(१)आत्मप्रतिष्ठित क्रोधादि-अपने आप पर ही आधारित होते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि स्वयं आचरित किसी कर्म के फलस्वरूप जब कोई जीव अपना इहलौकिक अनिष्ट (अपाय-हानि) देखता है, तब वह अपने पर क्रोध, मान, माया या लोभ करता है, वह आत्मप्रतिष्ठित क्रोधादि है । यह क्रोध आदि अपने ही प्रति किया जाता है। (२) परप्रतिष्ठित क्रोधादि -जब किसी अन्य व्यक्ति या जीव-अजीव को अपने अनिष्ट में निमित्त मानकर जीव क्रोध आदि करता है, अथवा जब दूसरा कोई व्यक्ति आक्रोशदि करके क्रोध आदि उत्पन्न करता है, भड़काता है, तब उसके प्रति जो क्रोधादि उत्पन्न होता है, वह परप्रतिष्ठित क्रोधादि है। (३)उभयप्रतिष्ठित क्रोधादि-कई बार जीव अपने पर भी क्रोधादि करता है और दूसरों पर भी करता है, जैसे-अपने और दूसरे के द्वारा किए गए अपराध के कारण जब कोई व्यक्ति स्वपरविषयक क्रोधादि करता है, तब वह क्रोधादि उभयप्रतिष्ठित होता है। (४) अप्रतिष्ठित क्रोधादि- जब कोई क्रोध आदि दुराचरण, आक्रोश आदि निमित्त कारणों के बिना, निराधार हो केवल क्रोध आदि (वेदनीय) मोहनीय के उदय से उत्पन्न हो जाता है, तब क्रोधादि अप्रतिष्ठित होता है। ऐसा क्रोधादि न तो आत्मप्रतिष्ठित होता है, क्योंकि स्वयं के दुराचरणदि के कारण उत्पन्न नहीं होता और न वह परप्रतिष्ठित होता है, क्योंकि दूसरे का प्रतिकूल आचरण, व्यवहार या अपराध न होने से उस क्रोधादि का कारण 'पर' भी नहीं होता, न यह क्रोधादि उभयप्रतिष्ठित होता है, क्योंकि इसमें दोनों प्रकार के निमित्त नहीं होते। अतः यह क्रोधादि मोहनीय (वेदनीय) के उदय से बाह्य कारण के बिना ही उत्पन्न होने वाला क्रोधादि है। ऐसा व्यक्ति बाद में कहता हैओहो! मैंने अकारण ही क्रोधादि किया ; न तो कोई मेरे प्रतिकूल बोलता है, न ही मेरा कोई विनाश करता
कषायों की उत्पत्ति के चार-चार कारण
९६१.[१] कतिहि णं भंते ! ठाणेहिं कोहुप्पत्ती भवति ?
गोयमा ! चउहिं ठाणेहिं कोहुप्पत्ती भवति ।तं जहा-खेत्तं पडुच्च १ वत्थु पडुच्च २ सरीरं पडुच्च ३ उवहिं पडुच्च ४।
[९६९-१ प्र.] भगवन् ! कितने स्थानों (कारणों ) से क्रोध की उत्पत्ति होती है ?
१.
प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक २९०