Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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१८२]
[प्रज्ञापनासूत्र
समझना चाहिए । बारहवें आदर्शद्वार से अठारहवें वसाद्वार तक की प्ररूपणा
९९९. [१] अदाए णं भंते ! पेहमाणे मणूसे किं अद्दायं पेहेति ? अत्ताणं पेहेति ? पलिभागं पेहेति ?
गोयमा ! अद्दायं पेहेति णो अत्ताणं पेहेति, पलिभागं पेहेति । । [९९९-१ प्र.] भगवन् ! दर्पण देखता हुआ मनुष्य का दर्पण को देखता है ? अपने आपको (शरीर को) देखता हैं ? अथवा (अपने) प्रतिबिम्ब को देखता है ?
[९९९-१ उ.] गौतम ! (वह) दर्पण को देखता है, अपने शरीर को नहीं देखता, किन्तु (अपने शरीर का) प्रतिबिम्ब देखता है।
[२] एवं एतेणं अभिलावेणं असिं मणिं उडुपाणं तेल्लं फाणियं वसं ।
[९९९-२] इसी प्रकार (दर्पण के सम्बन्ध में जो कथन किया गया है) उसी अभिलाप के अनुसार क्रमशः असि, मणि, उदपान (दुग्ध और पानी), तेल, फाणित (गुड़राब) और वसा (चर्बी) (के विषय में अभिलाप-कथान करना चाहिए ।)
विवेचन - बारहवें आदर्शद्वार से अठारहवें वसाद्वार तक की प्ररूपणा - प्रस्तुत सूत्र (९९९) में आदर्श आदि की अपेक्षा से चक्षुरिन्द्रिय-विषयक सात अभिलापों की प्ररूपणा की गई है।
दर्पण आदि का द्रष्टा क्या देखता है ? - दर्पण, तलवार, मणि, पानी, दूध, तेल, गुड़राब और (पिघली हुई) वसा को देखता हुआ मनुष्य वास्तव में क्या देखता है ? यह प्रश्न है । शास्त्रकार कहते हैं - वह दर्पण शरीर को नहीं देखता, क्योंकि अपना शरीर तो अपने आप में स्थित रहता हैं, दर्पण में नहीं: फिर वह अपने शरीर को कैसे देख सकता है ? वह (द्रष्टा) जो प्रतिबिम्ब देखता है, वह छाया-पुद्गलात्मक होता हैं, क्योंकि सभी इन्द्रियगोचर स्थूल वस्तुएँ किरणों वाली तथा चय-अपचय धर्म वाली होती हैं। किरणें छायापुद्गलरूप हैं, सभी स्थूल वस्तुओं की छाया की प्रतीति प्रत्येक प्राणी को होती है। तात्पर्य यह है कि मनुष्य के जो छायापरमाणु दर्पण में उपसंक्रान्त होकर स्वदेह के वर्ण और आकार के रूप में परिणत होते हैं, उनकी वहाँ उपलब्धि होती हैं, शरीर की नहीं। वे (छायापरमाणु) प्रतिबिम्ब शब्द से व्यवहृत होते हैं।
प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक ३०४ २. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३०५
(ख) असिं देहमाणे मणूसे किं असिं देहइ, अत्ताणं देहइ पलिभागं देहइ ? इत्यादि ।