Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रज्ञापनासूत्र
१४. वस्त्र, १५. गन्ध, १६. उत्पल, १७.तिलक, १८. पृथ्वी, १९. निधि, २०. रत्न, २१. वर्षधर, २२. द्रह, २३. नदियाँ, २४. विजय, २५. वक्षस्कार, २६. कल्प, २७. इन्द्र, २८. कुरु, २९. मन्दर, ३०. आवास, ३१. कूट, ३२. नक्षत्र, ३३. चन्द्र, ३४. सूर्य, ३५. देव, ३६. नाग, ३७. यक्ष, ३८. भूत और ३९. स्वयम्भूरमण समुद्र ॥२०४,२०५,२०६॥
इस प्रकार जैसे (धर्मास्तिकायादि से लेकर अद्धा-समय तक की अपेक्षा से) बाह्यपुष्करार्द्ध के (स्पृष्टास्पृष्ट के) विषय में कहा गया उसी प्रकार (वरुणद्वीप से लेकर) स्वयम्भूरमणसमुद्र (तक) के विषय में 'अद्धासमय से स्पृष्ट नहीं होता,' पर्यन्त (कहना चाहिए ।)
१००४. लोगे णं भंते ! किणा फुडे ? कतिहिं वा काएहिं ? जहा आगासथिग्गले (सु. १००२)।
[१००४ प्र. उ.] भगवन् ! लोक किससे स्पृष्ट है ? (वह) कितने कायों से स्पृष्ट है (इत्यादि समस्त वक्तव्यता जिस प्रकार (सू. १००२ में) आकाश-थिग्गल के विषय में कही गई है, (उसी प्रकार कहनी चाहिए।)
१००५. अलोए णं भंते ! किणा फुडे ? कतिहिं वा काएहिं पुच्छा। : गोयमा ! णो धम्मत्थिकाएणं फुडे जाव णो आगासत्थिकाएणं फुडे, आगासत्थिकायस्स देसेणं फुडे आगासत्थिकायस्स पदेसेहिं फुडे, णो पुढविक्काइएणं फुडे जाव णो अद्धासमएणं फुडे, एगे अजीव-दव्वदेसे अगुरुलहुए अणंतेहिं अगुरुलहुयगुणेहिं संजुत्ते सव्वागासे अणंतभागूणे ।
॥इंदियपयस्स पढमो उद्देसो समत्तो॥
___[१००५ प्र.] भगवन् ! अलोक किससे स्पृष्ट है ? (वह) कितने कायों से स्पृष्ट है ? इत्यादि सर्व पृच्छा यहाँ पूर्ववत् करनी चाहिए।
[१००५ उ.] गौतम ! अलोक धर्मास्तिकाय से स्पृष्ट नहीं है, (अधर्मास्तिकाय से लेकर) यावत् (समग्र) आकाशस्तिकाय से स्पृष्ट नहीं है: (वह) आकाशास्तिकाय के देश से स्पृष्ट है तथा आकाशास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट है: (किन्तु) पृथ्वीकाय से स्पृष्ट नहीं है, यावत् अद्धा-समय (कालद्रव्य) से स्पष्ट नहीं है। अलोक एक अजीवद्रव्य का देश है, अगुरुलघु है, अनन्त अगुरुलघुगुणों से संयुक्त है, सर्वाकाश के अनन्तवें भाग कम है। (लोकाकाश को छोड़कर सर्वाकाश प्रमाण है।)
विवेचन - इक्कीस-बाईस-तेईस-चौवीसवाँ थिग्गल-द्वीपोदधि-लोक-अलोकद्वार - प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. १००२ से १००५ तक) में आकाशरूप थिग्गल, द्वीप-सागरादि, लोक और अलोक के धर्मास्तिकायादि से लेकर अद्धा-समय तक से स्पृष्ट-अस्पृष्ट होने की प्ररूपणा की गई है।