Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रज्ञापनासूत्र
कषाय), आभोग (निर्वर्तित आदि-कषाय), अष्ट कर्मप्रकृतियों के चय, उपचय, बन्ध, उदीरणा, वेदना तथा निर्जरा (का कथन किया गया है ।)
विवेचन - जीवों के द्वारा अष्टविध कर्मप्रकृतियों के चयादि के कारणभूत चार कषायों का निरूपण - प्रस्तुत आठ सूत्रों में (सू. ९६४ से ९७१ तक) में समुच्चय जीवों तथा चौवीस दण्डकवर्ती जीवों द्वारा आठ प्रकृतियों के त्रैकालिक चय, उपचय, बन्ध, उदीरणा, वेदना और निर्जरा के कारणभूत चारों कषायों की पृथक्-पृथक् प्ररूपणा की गई है।
निष्कर्ष - भूत, वर्तमान, और भविष्य इन तीनों कालों में समुच्चय जीव तथा नारकों से लेकर वैमानिकों तक चौवीस दण्डकों के जीवों द्वारा क्रोध, मान, माया और लोभ के कारण आठ कर्मप्रकृतियों का चय उपचय, बन्ध, उदीरणा, वेदना और निर्जरा की गई है, की जाती है और की जाएगी ।
चय, उपचय, आदि शब्दों की शास्त्रीय परिभाषा - चय - कषायपरिणत होकर जीव द्वारा कर्मयोग्य पुद्गलों का उपादान (ग्रहण) करना । उपचय - अपने अबाधाकाल के उपरान्त ज्ञानावरणीय आदि कर्म-पुद्गलों के वेदन (भोगने ) के निषेक (कर्म-पुद्गलों की रचना) करना। निषेक रचना को कहते हैं । उसका क्रम इस प्रकार है-प्रथम स्थिति में सबसे अधिक द्रव्य, दूसरी स्थिति में विशेषहीन, तीसरी स्थिति में उसकी अपेक्षा भी विशेषहीन, इस प्रकार उत्तरोत्तर विशेषहीन-विशेषहीन कर्मपुद्गल वेदन के लिए स्थपित किए जाते हैं। बन्ध - जिन ज्ञानावरणीयादि कर्मपुद्गलों को यथोक्तप्रकार से निषक्त किया है, उनका विशिष्ट कषायपरिणति से निकाचन होना बन्ध कहलाता है। उदीरणा - कर्म अभी उदय में नही आए हैं,. उन्हे उदीरणीकरण के द्वारा जो उदयावलिका में ले आना। वेदना - आबाधाकाल समाप्त होने पर उदयप्राप्त या उदीरित करके-उदीरणा करके कर्म का उपयोग करना (भोग लेना) वेदना कहलाता है। निर्जराकपुद्गलों का वेदन (भोग) के पश्चात् अकर्मरूप में हो जाना अर्थात् आत्मप्रदेशों से झड़ जाना। प्रस्तुत प्रकरण में देशनिर्जरा का कथन किया गया है । सर्वनिर्जरा तो कषाय से रहित होकर योगों का सर्वथा निरोध करके मोक्षप्रासाद पर आरूढ होने वाले को होती है। देशनिर्जरा सभी जीव सदैव करते रहते हैं।'
॥प्रज्ञापनासूत्रः चौदहवाँ कषायपद समाप्त ॥
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प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २९२