Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ प्रज्ञापनासूत्र
[९८९] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की (इन्द्रिय-संस्थानादि सम्बन्धी वक्तव्यता) (सू. ९८४ में अंकित) असुरकुमारों की (इन्द्रिय-संस्थानादि सम्बन्धी वक्तव्यता के समान कहना चाहिए) ।
१७२ ]
विवेचन - चौवीस दण्डकों में संस्थानादि छह द्वारों की प्ररूपणा - नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक चौवीस दण्डकवर्ती जीवों की इन्द्रियों के संस्थान, बाहल्य, पृथुत्व, प्रदेश, अवगाहना एवं अल्प बहुत्व के सम्बन्ध में सात सूत्रों (सू. ९८३ से ९८९ तक) में प्ररूपणा की गई है ।
नैरयिकों और असुरकुमारादि भवनवासियों की स्पर्शनेन्द्रिय के विशिष्ट संस्थान - नैरयिकों के शरीर (वैक्रियशरीर) दो प्रकार के होते हैं - भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । भवधारणीय शरीर (स्पर्शनेन्द्रिय) उन्हें भवस्वभाव से मिलता हैं, जो कि अत्यन्त बीभत्स संस्थान (हुण्डक आकार) वाला होता है। उनका उत्तरवैक्रिय शरीर भी हुण्डकसंस्थान वाला ही होता है। क्योंकि वे चाहते तो हैं शुभ-सुखद शरीर विक्रिया करना, किन्तु उनके अतीव अशुभ तथाविध नामकर्म के उदय से अत्यन्त अशुभतर वैक्रियशरीर बनता है ।
असुरकुमारादि भवनवासियों के भी दो प्रकार के शरीर (स्पर्शनेन्द्रिय) होते हैं- भवधारणीय एवं उत्तरवैक्रिय । उनका भवधारणीय शरीर तो समचतुरस्रसंस्थान वाला होता है, जो कि भव के प्रारम्भ से अन्त तक रहता है। उनका उत्तरवैक्रियशरीर नाना संस्थान (आकार) वाला होता है, क्योंकि उत्तरवैक्रियशरीर की मनचाही रचना वे स्वेच्छा से कर लेते हैं ।
सप्तम- अष्टम स्पृष्ट एवं प्रविष्ट द्वार
१.
९९०. [ १ ] पुट्ठाई भंते! सद्दाई सुणेइ ? अपुट्ठाई सद्दाई सुणेइ ?
गोयमा ! पुट्ठाई सद्दाइं सुणेइ, नो अपुट्ठाई सद्दाई सुइ ।
[९९०-१ प्र.] भगवन् (श्रोत्रेन्द्रिय) स्पृष्ट शब्दों को सुनती है या अस्पृष्ट शब्दों को (सुनती है) ? [९९०-१ उ.] गौतम ! (वह) स्पृष्ट शब्दों को सुनती है, अस्पृष्ट शब्दों को नहीं सुनती ।
[२] पुट्ठाई भंते! रुवाई पासइ ? अपुट्ठाई रुवाई पासइ ?
गोयमा ! णो पुट्ठाई रुवाई पासइ, अपुट्ठाई रुवाई पासति ।
[९९०-२ प्र.] भगवन् ! (चक्षुरिन्द्रिय) स्पृष्ट रूपों को देखती है, अथवा अस्पृष्ट रूपों को (देखती है)? [९९०-२ उ.] गौतम ! (वह) अस्पृष्ट रूपों को देखती है, स्पृष्ट रूपों को नहीं देखती ।
[३] पुट्ठाई भंते ! गंधाई अग्घाइ ? अपुट्ठाई गंधाई अग्घाइ ? गोया ! पुट्ठाई गंधाई अग्घाइ, णो अपुट्ठाई गंधाई अग्घाइ ।
प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २९७ - २९८