Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक]
[१७७
तुच्छत्तं वा गरुयत्तं वा लहुयत्तं वा जाणइ पासइ ?
गोयमा ! णो इणढे समढे ।
से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ छउमत्थे णं मणूसे तेसिं णिजरापोग्गलाणंणो किंचि आणत्तं वा णाणत्तं वा ओमत्तं वा तुच्छत्तं वा गरुयत्तं वा लहुयत्तं वा जाणइ पासइ ?
गोयमा ! देवे वि य णं अत्थेगइए जेणं तेसिं णिज्जरापोग्गलाणं णो किंचि आणत्तं वा णाणत्तं वा ओमत्तं वा तुच्छत्तं वा गरुयत्तं वा लहुयत्तं वा जाणइं पासइ, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ - छउमत्थे णं मणूसे तेसिं णिज्जरापोग्गलाणं णो किंचि आणत्तं वा णाणत्तं वा ओमत्तं वा तुच्छत्तं वा गरुयत्तं वा लहुयत्तं वा जाणइ पासइ, सुहुमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो !, सव्वलोगं पि य णं ते ओगाहित्ता चिट्ठति ।
. [९९४ प्र.] भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य उन (चरम-) निर्जरा-पुद्गलों के अन्यत्व या नानात्व, हीनत्व (अवमत्व) अथवा तुच्छत्व, गुरुत्व या लघुत्व को जानता-देखता हैं ?
[९९४ उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) शक्य नहीं है।
[प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहते हैं कि छद्मस्थ मनुष्य उन (भावितात्मा अनगार के चरमनिर्जरा पुद्गलों) के अन्यत्व, नानातव, हीनत्व, तुच्छत्व, गुरुत्व अथवा लघुत्व को नहीं जानता देखता है ?
[उ.] (मनुष्य तो क्या) कोई-कोई (विशिष्ट) देव भी उन निर्जरापुद्गलों के अन्यत्व, नानात्व, हीनत्व, तुच्छत्व, गुरुत्व या लघुत्व को किंचित् भी नहीं जानता-देखता है। हे गौतम ! इस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरापुद्गलों के अन्यत्व, नानात्व, हीनत्व, तुच्छत्व, गुरुत्व या लघुत्व को नहीं जान-देख पाता, (क्योंकि) हे आयुष्मन् श्रमण ! वे (चरमनिर्जरा-) पुद्गल सूक्ष्म हैं । वे सम्पूर्ण लोक को अवगाहन करके रहते हैं ।
विवेचन - दसवाँ अनगार - द्वार - प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. ९९३-९९४) में भावितात्मा अनगार के सूक्ष्म एवं सर्वलोकावगाढ पुद्गलों को छद्मस्थ द्वारा जानने-देखने की असमर्थता की प्ररूपणा की गई हैं।
भावितात्मा अनगार - जिसके द्रव्य और भाव से कोई अगार - गृह नहीं है, वह अनगारसंयत है। जिसने ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपोविशेष से अपनी आत्मा भावित - वासित की है, वह भावितात्मा कहलाता है ।
चरमानिर्जरापुद्गल - उक्त भावितात्मा अनगार जब मारणान्तिक समुद्घात से समवहत होता है, तब उसके चरम अर्थात् शैलेशी अवस्था के अन्तिम समय में होने वाले जो निर्जरापुद्गल होते हैं, अर्थात् - कर्म रूप परिणमन से मुक्त - कर्मपर्याय से रहित जो पुद्गल यानी परमाणु होते हैं, वे चरमनिर्जरापुद्गल कहलाते हैं।'
१. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३०३