Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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१२० ]
[प्रज्ञापनासूत्र
[३] तेया-कम्मगा जहा एतिर्सि चेव ओहिया ओरालिया।
[९१८-३] (इनके बद्ध-मुक्त) तैजस-कार्मणशरीरों के विषय में इन्हीं के समुच्चय (औधिक) औदारिकशरीरों के समान (कहना चाहिए)।
९१९. एवं जाव चउरिदिया ।
[९१९] इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रियों तक (त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रियों के समस्त बद्ध मुक्त शरीरों के विषय में) कहना चाहिए।
९२०. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं एवं चेव। नवरं वेउब्वियसरीरएसु इमो विसेसोपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवतिया वेउव्वियसरीरया पण्णत्ता ?
गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता । तं जहा-बद्धेल्लगा य मुक्केल्लगा य । तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं असंखेजा जहा असुरकुमाराणं (सु. ९१२ [२])। णवरं तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलपढमवग्गमूलस्स असंखेज्जतिभागो। मुक्केल्लगा तहेव । ___[९२०] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों के (समस्त बद्ध-मुक्त शरीरों के) विषय में इसी प्रकार (कहना चाहिए)। इनके (बद्ध-मुक्त) वैक्रिय शरीरों (के विषय) में यह विशेषता है -
[प्र.] भगवन ! पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों के कितने वैक्रियशरीर कहे हैं ?
[उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के हैं, वे इस प्रकार - बद्ध और मुक्त । उनमें जो बद्ध वैक्रियशरीर हैं, वे असंख्यात हैं, उनकी प्ररूपणा (सू.९१२-२ में) उल्लिखित असुरकुमारों के (बद्धमुक्त वैक्रियशरीरों के) समान (करनी चाहिए।) विशेष यह है कि (यहाँ) उन श्रेणियों की विष्कम्भ सूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल का असंख्यातवाँ भाग (समझना चाहिए)। इनके मुक्त वैक्रियशरीरों के विषय में भी उसी प्रकार (औधिक मुक्त वैक्रियशरीरों के समान) समझना चाहिए।
विवेचन - द्वीन्द्रियों से तिर्यंचपंचेन्द्रियों तक के बद्ध-मुक्त शरीरों की प्ररूपणा - प्रस्तुत तीन सूत्रों में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों के बद्ध मुक्त औदारिकादि पांचों शरीरों की प्ररूपणा की गई है ।
द्वीन्द्रियों के बद्ध-मुक्त औदारिकशरीरों की प्ररूपणा - द्वीन्द्रियों के बद्ध औदारिकशरीर असंख्यात हैं। उनका काल से परिमाण इस प्रकार है-यदि उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालों के एक-एक समय में एक-एक औदारिकशरीर का अपहरण किया जाए तो असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों में इन सबका अपहरण सम्भव है। दूसरे शब्दों में कहें तो - असंख्यात उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी कालों में जितने समय होते हैं, उतने प्रमाण में बद्ध औदारिकशरीर हैं । क्षेत्र की अपेक्षा से वे असंख्यात श्रेणियों के बराबर हैं,