Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
ग्यारहवाँ भाषापद ]
[ ७५
देवदत्त ! । ( २ ) आज्ञापनी जिसके द्वारा दूसरे को किसी प्रकार की आज्ञा दी जाए। जैसे- 'तुम यह कार्य करो।' आज्ञापनी भाषा दूसरे को कार्य में पवृत्त करने वाली होती है। ( ३ ) याचनी - किसी वस्तु की याचना करने (मांगने) के लिए प्रयुक्त की जाने वाली भाषा । जैसे- मुझे दीजिए। ( ४ ) पृच्छनी - किसी संदिग्ध या अनिश्चित वस्तु के विषय में किसी विशिष्ट ज्ञाता से जिज्ञासावश पूछना कि 'इस शब्द का अर्थ क्या है?' (५) प्रज्ञापनी - विनीत शिष्यादि जनों के लिए उपदेशरूप भाषा । जैसे- जो प्राणिहिंसा से निवृत्त होते हैं, वे . दूसरे जन्म में दीर्घायु होते हैं । ( ६ ) प्रत्याख्यानी - जिस भाषा के द्वारा अमुक वस्तु का प्रत्याख्यान कराया जाए या प्रकट किया जाए। जैसे- आज तुम्हारे एक प्रहर तक आहार करने का प्रत्याख्यान है । अथवा किसी के द्वारा याचना करने पर कहना कि 'मैं यह वस्तु तुम्हें नहीं दे सकता।' (७) इच्छानुलोमा - जो भाषा इच्छा अनुकूल हो, अर्थात् - वक्ता के इष्ट अर्थ का समर्थन करने वाली हो। इसके अनेक प्रकार हो सकते हैं (१) जैसे कोई किसी गुरुजन आदि से कहे- 'आपकी अनुमति (इच्छा) हो तो मैं प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ । ' (२) कोई व्यक्ति किसी साथी से कहे- 'आपकी इच्छा हो तो यह कार्य कीजिए', (३) आप यह कार्य कीजिए, इसमें मेरी अनुमति है । (या ऐसी मेरी इच्छा है)। इस प्रकार की भाषा इच्छानुलोमा कहलाती है । ( ८ ) अनभिगृहीता - जो भाषा किसी नियत अर्थ का अवधारण न कर पाती हो, वक्ता की जिस भाषा में कार्य का कोई निश्चित रूप न हो, वह अनभिगृहीता भाषा है। जैसे किसी के सामने बहुत-से कार्य उपस्थित हैं, अत: वह अपने किसी बड़े या अनुभवी से पूछता है - 'इस समय मैं कौन-सा कार्य करूं ?' इस पर वह उत्तर देता है - 'जो उचित समझो, करो।' ऐसी भाषा से किसी विशिष्ट कार्य का निर्णय नहीं होता, अत: इसे अनभिगृहीता भाषा कहते हैं । ( ९ ) अभिगृहीता - जो भाषा किसी नियत अर्थ का निश्चय करने वाली हो, जैसे - " इस समय अमुक कार्य करो, दूसरा कोई कार्य न करो।' इस प्रकार की भाषा 'अभिगृहीता' है । (१०) संशयकरणी - जो भाषा अनेक अर्थों को प्रकट करने के कारण दूसरे के चित्त में संशय उत्पन्न कर देती हो। जैसे किसी ने किसी से कहा- 'सैन्धव ले आओ' । सैन्धव शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, जैसे घोड़ा, नमक, वस्त्र और पुरुष । 'सैन्धव' शब्द को सुनकर यह संशय उत्पन्न होता है कि यह नमक मंगवाता है,
घोड़ा आदि। यह संशयकरणी भाषा है । ( ११ ) व्याकृता - जिस भाषा का अर्थ स्पष्ट हो, जैसे- यह घड़ा है । (१२) अव्याकृता - जिस भाषा का अर्थ अत्यन्त ही गृढ़ हो, अथवा अव्यक्त (अस्पष्ट ) अक्षरों का प्रयोग करना अव्याकृता भाषा है, क्योंकि वह भाषा ही समझ में नहीं आती।.
यह बारह प्रकार की अपर्याप्ता असत्यामृषा भाषा है। यह भाषा पूर्वोक्त सत्या, मृषा और मिश्र इन तीनों भाषाओं के लक्षण से विलक्षण होने के कारण न तो सत्य कहलाती है, न असत्य और न ही सत्यामृषा । यह भाषा केवल व्यवहारप्रवर्तक है, जो साधुजनों के लिए भी बोलने योग्य मानी गई है।
१. 'पाणिवहाउ नियत्ता हवंति दीहाउया अरोगा य । एमाई पण्णत्ता पण्णवणी वीयरागेहिं ॥
२. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २५७ से २५९ तक
(ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका सहित भा. ३, पृ. ३०३ से ३२० तक
- प्रज्ञापना. म. वृ. प. २५९