Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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बारहवाँ शरीरपद]
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श्रेणियाँ समझी जाएं ? इसी जिज्ञासा का समाधान करने के लिए मूलपाठ में कहा गया है - प्रतर का असंख्यातवाँ भाग। अर्थात् - प्रतर के असंख्यातवें भाग में जितनी श्रेणियाँ होती हैं, उतनी ही श्रेणियाँ यहाँ ग्रहण करनी चाहिए। फिर यहाँ उनका विशेष परिमाण बतलाने के लिए कहा गया है - उन श्रेणियों की विष्कम्भ सूची अर्थात् विस्तार को लेकर सूची = एकप्रादेशिकी श्रेणी उतनी होती है, जितनी अंगुल के प्रथम वर्गमूल को द्वितीय वर्गमूल से गुणा करने पर (जो) राशि निष्पन्न होती है । आशय यह है कि एक अंगुलप्रमाणमात्र क्षेत्र के प्रदेशों की जितनी प्रदेश राशि होती है, उसके असंख्यात वर्गमूल होते हैं । यथा - प्रथमवर्गमूल का भी जो वर्गमूल होता है, वह द्वितीय वर्गमूल होता है, उस द्वितीय वर्गमूल का जो वर्गमूल होता है, वह तृतीय वर्गमूल होता है, इस प्रकार उत्तरोत्तर असंख्यात वर्गमूल होते हैं । अतः प्रस्तुत में प्रथम वर्गमूल को दूसरे वर्गमूल के साथ गुणित करने पर जितने प्रदेश होते हैं, उतने प्रदेशों की सूची की बुद्धि से कल्पना कर ली जाए । तत्पश्चात् विस्तार में उसे दक्षिण-उत्तर में लम्बी स्थापित कर ली जाए। वह स्थापित की हुई सूची जितनी श्रेणियों को स्पर्श करती है, उतनी श्रेणियाँ यहाँ ग्रहण कर लेनी चाहिए। उदाहरणार्थयों तो एक अंगुलमात्र क्षेत्र में असंख्यात प्रदेश राशि होती है, फिर भी असत्कल्पना से उसकी संख्या २५६ मान लें । इस संख्या का प्रथम वर्गमूल सोलह (२४५=१०+६=१६) होता है । दूसरा वर्गमूल ४ और तृतीय वर्गमूल २ होता है। इनमें से जो द्वितीय वर्गमूल चार संख्या वाला है, उसके साथ सोलह संख्या वाले प्रथम वर्गमूल को गुणित करने पर ६४ (चौसठ) संख्या आती है। बस, इतनी ही इसकी श्रेणियाँ समझनी चाहिए। इस बात को शास्त्रकार प्रकारान्तर से कहते हैं - अथवा अंगुल के द्वितीय वर्गमूल के घन-प्रमाण (घन जितनी) श्रेणियाँ समझनी चाहिए। इसका आशय यह है कि एक अंगुलमात्र क्षेत्र में जितने प्रदेश होते हैं, उन प्रदेशों की राशि के साथ द्वितीय वर्गमूल का, अर्थात - असत्कल्पना से चार का जो घन हो, उतने प्रमाण वाली श्रेणियाँ समझनी चाहिए। जिस राशि का जो वर्ग हो. उसे उसी राशि से गणा करने पर 'घन' होता है। जैसे - दो का घन आठ है। वह इस प्रकार है - दो राशि का वर्ग चार है, उस को (चार को) दो के साथ गुणा करने पर आठ संख्या होती है। इसलिए दो राशि का घन आठ हुआ। इसी प्रकार यहाँ पर भी चार (४) राशि का वर्ग सोलह होता है, उस को (सोलह को) चार राशि के साथ गुणा करने पर चार का घन वही चौसठ (६४) आता है। इस तरह इन दोनों प्रकार (तरीकों) में कोई वास्तविक भेद नहीं है। यहाँ वृत्तिकार एक तीसरा प्रकार भी बताते हैं-अंगुलप्रमाण क्षेत्र के प्रदेशों की राशि को अपने प्रथम वर्गमूल के साथ गुणा करने पर जितनी प्रदेशराशि होती है, उतने ही प्रमाण वाली सूची जितनी श्रेणियों को स्पर्श करती है, उतनी श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश हों, उतने ही नारकों के बद्ध वैक्रियशरीर होते हैं। नारकों के मुक्त वैक्रियशरीर की प्ररूपणा उनके मुक्त औदारिकशरीरों के समान समझनी चाहिए।
नारकों के बद्ध-मुक्त आहारकशरीर - जैसे नारकों के बद्ध औदारिकशरीरों के विषय में कहा गया है, वैसा ही उनके बद्ध आहारकशरीर के विषय में भी समझना चाहिए। नारकों के बद्ध आहारकशरीर होते ही नहीं, क्योंकि उनमें आहारकलब्धि सम्भव नहीं है। आहारकशरीर तो केवल आहारकलब्धिसम्पन्न चतुर्दश