Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रज्ञापनासूत्र पूर्वधारी मुनियों को ही होता है। नैरयिकों के मुक्त आहारकशरीरों के विषय में पूर्ववत् समझना चाहिए। भवनवासियों के बद्ध-मुक्त शरीरों का परिणाम
९१२.[१] असुरकुमाराणं भंते ! केवतिया ओरालियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहा णेरइयाणं ओरालिया भणिया (सु. ९११ [१]) तहेव एतेसिं पि भाणियव्वा। [९१२-१ प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों के कितने औदारिकशरीर कहे गए हैं ?
[९१२-२ उ.] गौतम ! जैसे नैरयिकों के (बद्ध-मुक्त) औदारिकशरीरों के विषय में (सू. ९११-१ में) कहा गया है, उसी प्रकार इनके (असुरकुमारों के बद्ध-मुक्त औदारिकशरीरों के) विषय में भी कहना चाहिए।
[२] असुरकुमाराणं भंते ! केवतिया वेउव्वियसरीरा पण्णत्ता ?
गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा - बद्धेल्लगा य मुक्केल्लगा य। तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं असंखेज्जा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ,खेत्तओ असंखेज्जाओ सेढीओ पतरस्स असंखेजतिभागो, तासिणं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलपढमवग्गमूलस्स संखेजतिभागो। तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते णं जहा ओरालियस्स मुक्केल्लगा तहा भाणियव्वा (सु. ९१० [१])।
[९१२-२ प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों के वैक्रियशरीर कितने कहे गये हैं ?
[९१२-२ उ.] गौतम ! (वे) दो प्रकार के कहे गए हैं - बद्ध और मुक्त। उनमें जो बद्ध हैं, वे असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा से असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवर्पिणियों में वे अपहृत होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा से असंख्यात श्रेणियों (जितने) हैं। (वे श्रेणियां) प्रतर का असंख्यातवाँ भाग (प्रमाण हैं।) उन श्रेण्यिों की विष्कम्भसूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल का संख्यातवाँ भाग (प्रमाण) है। उनमें जो.(असुरकुमारों के) मुक्त (वैक्रिय) शरीर हैं, उनके विषय में जैसे (सू. ९१०-१ में) मुक्त औदारिक शरीरों के विषय में कहा गया है, उसी तरह कहना चाहिए।
[३] आहारयसरीरा जहा एतेसि णं चेव ओरालिया तहेव दुविहा भाणियव्वा ।
[९१२-३] (इनके) (बद्ध-मुक्त) आहारकशरीरों के विषय में, इन्हीं के (बद्ध-मुक्त) दोनों प्रकार के औदारिकशरीरों की तरह प्ररूपणा करनी चाहिए।
[४] तेया-कम्मसरीरा दुविहा वि जहा एतेसि णं चेव वेउब्वियां ।
[९१२-४] (इनके बद्ध-मुक्त) दोनों प्रकार के तैजस और कार्मण शरीरों (का कथन) भी इन्हीं के १. (क) प्रज्ञापना सूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक २७४-२७५ (ख) अंगुलबिइयवग्गमूलं पढमवग्गमूलपडुप्पण्णं'
-प्रज्ञापना. म. वृ., प. २७३ में उद्धत