Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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ग्यारहवाँ भाषापद]
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उच्चारणादि प्रयत्न कि बिना अवबोधबीज भाषा की उत्पत्ति होना सम्भव नहीं है। आचार्य भद्रबाहुस्वामी ने कहा है - औदारिक, वैक्रिय और आहारक, इन तीनों शरीरों में जीव से सम्बद्ध जीव-(आत्म) प्रदेश होते हैं, जिनसे जीव भाषा द्रव्यों को ग्रहण करता है। तत्पश्चात् ग्रहणकर्ता (वह भाषक जीव) उस भाषा को बोलता है अर्थात् गृहीत भाषाद्रव्यों का त्याग करता है।
भाषा का प्रभव - उत्पत्ति कहाँ से ? - इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि भाषा शरीर-प्रभवा है अर्थात् औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर से भाषा की उत्पत्ति होती है, क्योंकि इन तीनों में से किसी एक शरीर के सामर्थ्य से भाषाद्रव्य का निर्गम होता है।
- भाषा का संस्थान - आकार - भाषा वज्रसंस्थिता बताई गई है, जिसका तात्पर्य यह कि भाषा का आकार वज्रसदृश होता है: क्योंकि जीव के विशिष्ट प्रयत्न द्वारा नि:सृष्ट (निकले हुए) भाषा के द्रव्य सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हो जाते हैं और लोक वज्र के आकार का है। अतएव भाषा की वज्राकृति कही गई है।
भाषा का पर्यवसान कहाँ ? - भाषा का अन्त लोकान्त (लोक के सिरे) में होता है। अर्थात् जहाँ लोक का अन्त है वहीं भाषा का अन्त है: क्योंकि लोकान्त से आगे गतिसहायक धर्मास्तिकाय का अभाव होने से भाषाद्रव्यों का गमन असम्भव है: ऐसा मैने एवं शेष तीर्थकरों ने प्ररूपित किया है।
भाषा का उद्भव किस योग से ? - यहाँ प्रथम गाथा में प्रश्न किया गया है कि भाषा का उद्भव (उत्पत्ति) किस योग से होता है ? काययोग से, वचनयोग से या मनोयोग से ? उत्तर में - पूर्ववत् ‘सरीरप्पहवा (शरीरप्रभवा)' कहा गया है, किन्तु वृत्तिकार इसका अर्थ करते हैं - काययोगप्रभवाः क्योंकि प्रथम काययोग से भाषा के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके, उन्हें भाषारूप में परिणत करके फिर वचनयोग से उन्हें निकालता - उच्चारण करता है। इस कारण भाषा को काययोगप्रभवा' कहना उचित है। आचार्य भद्रबाहुस्वामी कहते हैं-जीव कायिकयोग से (भाषा योग्य पुद्गलों को) ग्रहण करता है तथा वाचिकयोग से (उन्हें) निकालता है।
भाषा का भाषणकाल - जीव दो समयों में भाषा बोलता है, क्योंकि वह एक समय में भाषा योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है और दूसरे समय में उन्हें भाषारूप में परिणत करके छोड़ता (निकालता) है।।
भाषा के प्रकार - इससे पूर्व भाषा के चार प्रकार स्वरूपसहित बताए जा चुके हैं - सत्या, मृषा (असत्या), सत्यामृषा (मिश्र) और असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा।
१. 'तिविहंमि सरीरंमि, जीवपएसा हवंति जीवस्स । जेहिं उ गेण्हइ गहणं, तो भासइ भासओ भासं ॥'
-प्रज्ञापना. मलय वृत्ति, पत्रांक २५६ में उद्धत २. 'गिण्हइ य काइएणं, निसरइ तह वाइएण जोगेणं ।'
-प्रज्ञापना. म. वृ. पत्रांक २५७ में उद्धृत