Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रज्ञापनासूत्र
[८११-१ उ.] गौतम ! (स्थितिचरम की दृष्टि से अनेक नैरयिक) चरम भी हैं और अचरम भी हैं। [२] एवं निरंतरं जाव वेमाणिया । [८११-२] लगातार (अनेक) वैमानिक देवों तक इसी प्रकार (प्ररूपणा करनी चाहिए।) ८१२.[१]णेरइए णं भंते ! भवचरिमेणं किं चरिमे अचरिमे ? गोयमा ! सिय चरिमे सिय अचरिमे। . [८१२-१ प्र.] भगवन् ! (एक) नैरयिक भवचरम की दृष्टि से चरम है या अचरम ? [८१२-१ उ.] गौतम ! (भवचरम की दृष्टि से एक नैरयिक) कथंचित् चरम है और कथंचित् अचरम
है
[२] एवं निरन्तरं जाव वेमाणिए । [८१२-२] (यों) लगातार (एक) वैमानिक तक इसी प्रकार (कहना चाहिए।) ८१३.[१] णेरइया णं भंते ! भवचरिमेणं किं चरिमा अचरिमा ? गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि । [८१३-१ प्र.] भगवन् ! (अनेक) नैरयिक भवचरम की दृष्टि से चरम हैं या अचरम हैं ? [८१३-१ उ.] गौतम ! (अनेक नैरयिक जीव भवचरम की अपेक्षा से) चरम भी हैं और अचरम भी
हैं
[२] एवं निरंतरं जाव वेमाणिया। [८१३-२] लगातार (अनेक) वैमानिक देवों तक इसी प्रकार समझना चाहिए। ८१४.[१] णेरइए णं भंते ! भासाचरिमेणं किं चरिमे अचरिमे ? गोयमा ! सिय चरिमे सिय अचरिमे । [८१४-१ प्र.] भगवन् ! भाषाचरम की अपेक्षा से (एक) नैरयिक चरम है या अचरम? [८१४-१ उ.] गौतम ! (भाषाचरम की दृष्टि से) एक नैरयिक कथंचित् चरम है तथा कथंचित् अचरम
[२] एवं निरंतरं जाव वेमाणिए । [८१४-२] इसी तरह लगातार (एक) वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए।