Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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ग्यारहवाँ भाषापद ]
गाय आदि शब्द जातिवाचक हैं, जैसे- गाय कहने से गोजाति का बोध होता है और जाति में स्त्री, पुरुष और नपुंसक तीनों लिंगों वाले आ जाते है। इसलिए गो आदि शब्द त्रिलिंगी होते हुए भी इस प्रकार एक लिंग में उच्चारण की जाने वाली भाषा पदार्थ का कथन करने के लिए प्रयुक्त होने से प्रज्ञापनी है तथा यह यथार्थ वस्तु का कथन करने वाली होने से सत्य है, क्योंकि शब्द चाहे किसी भी लिंग का हो, यदि वह जाति वाचक है तो देश, काल और प्रसंग के अनुसार उस जाति के अन्तर्गत वह तीनों लिंगों वाले अर्थो का बोधक होता है। यह भाषा न तो परपीड़ाजनक है, न किसी को धोखा देने आदि के उद्देश्य से बोली जाती हैं। इस कारण यह प्रज्ञापनी भाषा नहीं कही जा सकती । (२) इसी प्रकार (सू. ८३३ में प्ररूपित) शाला, माला आदि स्त्रीवचन (स्त्रीवाचक भाषा ), घट, पट आदि पुरुषवचन ( पुरुषवाचक भाषा) तथा धनं वनं आदि नपुंसकवचन (नपुसकवाचक भाषा) हैं, परन्तु इन शब्दों में स्त्रीत्व, पुरुषत्व या नपुंसत्क के लक्षण घटित नहीं होते । जैसे कि कहा है - जिसके बड़े- बड़े स्तन और केश हों, उसे स्त्री समझना चाहिए, जिसके सभी अंगों में रोम हों, उसे पुरुष कहते हैं तथा जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों के लक्षण घटित न हों, उसे नपुंसक जानना चाहिए ।
स्त्री आदि के उपर्युक्त लक्षणों के अनुसार शाला, माला आदि स्त्रीलिंगवाचक, घट-पट आदि पुरुषलिंगवाचक और धनं वनं आदि नपुंसकलिंगवाचक शब्दों में, इनमें से स्त्री आदि का कोई भी लक्षण घटित नहीं होता । ऐसी स्थिति में किसी शब्द को स्त्रीलिंग, किसी को पुरुषलिंग और किसी को नपुसंकलिंग कहना क्या प्रज्ञापनी भाषा है और यह सत्य है ? मिथ्या नहीं ? भगवान् ने इसका उत्तर हाँ में दिया है। किसी भी शब्द का प्रयोग किया जाता है तो वह शब्द पूर्वोक्त स्त्री, पुरुष या नपुसंक के लक्षणों का वाचक नहीं होता । विभिन्न लिंगों वाले शब्दों के लिंगों की व्यवस्था शब्दानुशासन या गुरु की उपदेशपरम्परा से होती है । इस प्रकार शाब्दिक व्यवहार की अपेक्षा से यथार्थ वस्तु का प्रतिपादन करने के कारण यह भाषा प्रज्ञापनी है। इसका प्रयोग न तो किसी दूषित आशय से किया जाता है और न ही इनसे किसी को पीड़ा उत्पन्न होती है । अत: इस प्रकार की प्रज्ञापनी भाषा सत्य है, मिथ्या नहीं। (३) सूत्र ८३४ के अनुसार प्रश्न का आशय यह है कि जिस भाषा से किसी स्त्री या किसी पुरुष या किसी नपुंसक को आज्ञा दी जाए, ऐसी क्रमश: स्त्री- आज्ञापनी, पुरुष - आज्ञापनी
नपुंसक - आज्ञापनी भाषा क्या प्रज्ञापनी है और सत्य है ? क्योंकि प्रज्ञापनी भाषा ही सत्य होती है, जबकि यह तो आज्ञापनी भाषा है, सिर्फ आज्ञा देने में प्रयुक्त होती है। जिसे आज्ञा दी जाती है, वह तदनुसार किया करेगा ही, यह निश्चित नहीं है । कदाचित् न भी करे। जैसे- कोई श्रावक किसी श्राविका से कहे - 'प्रतिदिन सामायिक करो,' या श्रावक अपने पुत्र से कहे- 'यथासमय धर्म की आराधना करो,' या श्रावक किसी नपुंसक से कहे – ‘नौ तत्त्वों का चिन्तन किया करो,' ऐसी आज्ञा देने पर जिसे आज्ञा दी गई है, वह यदि उस आज्ञानुसार क्रिया न करे तो ऐसी स्थिति में आज्ञा देने वाले की भाषा क्या प्रज्ञापनी और सत्य कहलाएगी ? भगवान् का उत्तर इस प्रकार है कि जो भाषा किसी स्त्री, पुरुष, या नपुंसक के लिए आज्ञात्मक है, वह आज्ञापनी भाषा प्रज्ञापनी है, मृषा नहीं है। तात्पर्य यह है कि आज्ञापनी भाषा दो प्रकार की है - परलोकबाधिनी और परलोकबाधा - अनुत्पादक। इनमें से जो भाषा स्वपरानुग्रहबुद्धि से, बिना किसी शठता के, किसी पारलौकिक