Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयचन्द्रिकाटीका श.३ उ.१ अग्निभूतेः वायुभूति प्रति चमरऋद्धिस्वरूपवर्णनम् ५३ न विश्वसिति 'नो पत्तियइ' नो प्रत्येति न प्रतिबुध्यते अग्निमूतिकथितं चमरादिस्वरूपं तथैवेति प्रतीति न करोति । 'नो रोएइ' नो रोचयति-न वाञ्छयति "एयमद्वं असद्दहमाणे" एतदर्थम् अश्रद्दधत् 'अपत्तियमाणे ' अपत्यन् 'अरोहमाणे' अरोचयन् ‘उठाए' उत्थया उत्थानशक्त्या 'उठेइ' उत्तिष्ठति 'उहित्ता' उत्थाय "जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ" यत्रैव श्रमणो भगवान् महावीरस्तत्रैवोपागच्छति 'जाव-पज्जुवासमाणे एवं वयासी' यावत् पर्युपासीनः एवमवादीत्, यावत्पदेन-'उवागच्छित्ता बंदइ नमसइ वदित्ता नमंसित्ता' इत्ये तेषां ग्रहणम्, भगवत्समीपे गत्वा वंदननमस्कारपुरःसरम् पर्युपासीनः वक्ष्यमाणसदहई' इस चमरादि के वर्णन रूप अर्थको अपनी श्रद्धाका विषयभूत नहीं बनाया । 'नो पत्तिय इ' अग्निभूति ने चमरेन्द्र के विषयमें जो कुछ कहा हैं वह बिलकुल सत्य ही कहा है ऐसी प्रतीति उन्हें नहीं आई । 'नो रोएइ' अग्निभूति का वह कथन उन्हें रुचा नहीं । अतः वे 'एयमढे असदहमाणे' इस अग्निभूति के चमरेन्द्र विषयक वर्णन पर अश्रद्धालु होकर 'अपत्तियमाणे प्रतीति से रहित होकर 'अरोएमाणे' अरुचि से युक्त होकर 'उहाए उद्वेइ' अपनी उत्थान शक्तिसे आसन पर से उठे 'उद्वित्ता और उठकर 'जेणेव समणेभगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ' जहां पर श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे वहां आये 'जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी' वहां आकर यावत् प्रभुकी पर्युपासना करते हुए उन्होंने उनसे इस प्रकार कहा-यहां 'यावत्' पदसे 'उवागच्छित्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता' इस पाठ का संग्रह हुआ है। तात्पर्य-कहनेका यह है कि जब वे प्रभु के श्रद्धा 3400 नही. "नो पत्तियइ" भिभूतमे यमरेन्द्रना विष २ पात ही ते सत्य ४ छ मेवी प्रतीति तेमने 25 नही. "नो रोएइ" Aभूतिनी वात तेमने सभी नहि. तेथी " एवम असद्दहमाणे " अभिभूतिनी यमरेन्द्र विषनी पातमा भश्रद्धाणु थने, “अपत्तियमाणे" प्रतीति २डित यधने, “अरोएमाणे" मायथी युत सनीन “ उठाए उडेड" वायुभूति मा२ तेभनी उत्थान शतिथी यां "उहित्वा जेणेव" त्याl salने या श्रमायु मसवान महावीर स्वामी मे हता त्या भाव्या "जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी" मी "जाव (प-त)" ५४था नीयन। पाठ ५ ४२॥ये। छे. "उवागच्छित्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता"
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩